September 23, 2023

आत्म-तत्व

क्वं गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत ! अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम !!६६!!
(गुरु के उपदेश  से शिष्य को ज्ञान होने के पश्चात्  वह कहने लगा)- जिस जगत को अभी मैनें देखा था, वह कहाँ चला गया ? वह कहाँ लीन हो गया ? बहुत आश्चर्य का विषय है कि अभी तो वह मुझे दिखाई दे रहा था, क्या वह अब नहीं है ?

 

किं हेयं किमुपादेयं किमन्यत्किम विलक्षणम  ! अखण्ड आनंदपीयूषपूर्णं ब्रह्ममहार्णवे !!६७!!
अखण्ड आनंदरूप पीयूष से पूरित ब्रह्म रूप सागर में अब मेरे लिए अब त्याग करने योग्य क्या है ? क्या ग्रहण करने योग्य कुछ है ? अन्य कुछ भी है क्या ? यह कैसी विलक्षणता है ?
न किंचिदत्र  पश्यामि न श्रीनोमी न वेदम्य्हम ! स्वात्मनैव सदानन्द रूपेणस्मी स्वलक्षणः !! ६८!!
यहाँ मैं न कुछ देखता हूँ, न सुनता हूँ और न ही कुछ जानता हूँ; क्योंकि मैं सदा आनंद रूप से अपने आत्मतत्व में ही स्थित हूँ और स्वयं ही अपने लक्षण वाला हूँ  !
असंगोSहमनंगोSहमलिंगोSहमहं हरिः ! प्रशांतोSहमनन्तोSहं परिपूर्णह चिरन्तनः !!६९!!
मै संग रहित हूँ, अंग रहित हूँ, चिह्न रहित हूँ और मै स्वयं हरि हूँ ! मैं प्रशांत हूँ, अनंत हूँ, परिपूर्ण हूँ और चिरंतन अर्थात प्राचीन से भी प्राचीन हूँ !
अकर्ताSहमभोक्ताSहमविकारोSहमव्ययः ! शुद्धो बोधस्वरुपोSहं  केवलोSहं सदाशिवः !!७०!!
मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, अविकारी हूँ और अव्यय हूँ ! मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ !

– अध्यात्मोपनिषद 

 

विक्षेपो नास्ति यस्मान्मे न समाधिस्ततो मम  ! विक्षेपो वा समाधिर्वा मनसः स्याद्विकारीणः !!२३!!
मुझे विक्षेप अर्थात चित्त की अस्थिरता नहीं होती, इस कारन से मुझे समाधी-अवस्था की जरुरत ही नहीं पड़ती ! जब यह मन विकारग्रस्त होता है, तब चित्त की अस्थिरता होती है और तभी समाधी की आवश्यकता होती है ! मैं तो नित्य ही अनुभव रूप हूँ ! समाधी में मुझे और क्या लुछ भिन्न अनुभव हो सकता है ?
नित्यानुभवरूपस्य को मेंSत्रानुभवः पृथक ! कृतं कृत्यं प्रापणीयं प्राप्तमित्येव  नित्यराः !!२४!!
व्यवहारों लौकिको वा शास्त्रीयो वाSन्यथापी वा ! ममाकर्तरलेपस्य  यथारब्धं प्रवर्तमान !!२५!!
मुझे जो-जो करना है, वह-वह मैंने किया तथा जो भी कुछ प्राप्त करना है, वह सदा ही प्राप्त करता रहा ! इस कारन लौकिक, शास्त्रीय या फिर अन्य किसी भी तरह का व्यवहार मुझे क्यों करना चाहिए ? अतः, मैं नहीं करता हूँ ! मुझे किसी भी बात की लिप्तता नहीं है ! सहज प्राकृतिक ढंग से जो होता है, उसी में रत रहता हूँ !
अथवा कृतकृत्योंSपि  लोकानुग्रहकाम्यया ! शास्त्रीयेणैव मार्गेण  वर्तेSहं मम  का क्षतिः !!२६!!
अथवा मैं कृत-कृत्य (पूर्णकाम) हूँ, तब भी साधारण लोगों पर अनुग्रह करने की इच्छा से यदि शास्त्र के आज्ञानुसार मैं चलता हूँ, तो इसमें मेरी क्या हानि है ?
देवार्चनस्नानशौचभिक्षादौ वर्तताम  वपु: ! तारं जपतु वाकतद्वतपठतवाम्नायमस्त्कम  !!२७!!
विष्णुं ध्यायतु धीर्यद्वा ब्रह्मानंदे विलीयताम ! साक्ष्यहं किंचिदप्य्त्र  न कुर्वे  नापि कारये !!२८!!
देवताओं की स्तुति-अर्चना, स्नान, शौच, भिक्षा आदि में शारीर भले ही लगा रहे ! वाणी ॐकार रूपी प्रणव को भले ही जपती रहे, उपनिषदों का पाठ भले  ही होता रहे, बुद्धि सदैव भगवान् विष्णु का  चिंतन भले ही करती रहे या फिर भले ही वह ब्रह्मलीन रहे ; किन्तु मैं तो केवल साक्षीरूप हूँ ! मैं इनमें से किसी भी काम को कभी भी नहीं करता हूँ और न ही करवाता हूँ !
कृतकृत्यतया तृप्तः प्राप्तप्राप्यतया पुनः ! तृप्यन्नेवं स्वमनसा मन्यतेSसौ निरंतरम  !!२९!!
मैं कृत-कृत्य होने से पूर्ण तृप्त हूँ तथा जो कुछ भी मुझे प्राप्त करना था, वह सभी कुछ  मैंने प्राप्त कर लिया है ! इस प्रकार से इस तृप्ति को ही मैं निरंतर अपने मन में मानता रहता हूँ !
धन्योSहं  धन्योSहं  नित्यं  स्वात्मानमंजसा  वेद्मि !  धन्योSहं  धन्योSहं  ब्रह्मानन्दौ  विभाति में   स्पष्टं !!८०!!
मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ ; क्योंकि मैं नित्य, अविनाशी अपने आत्म-तत्व को सहज रूप से ही जानता हूँ ! मैं धन्य हूँ-मैं धन्य हूँ  ; क्योंकि मुझे ब्रह्म का आनंद स्पष्टतया प्रकाश प्रदान करता है !

– अवधूतोपनिषद 

1 thought on “आत्म-तत्व

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!