वेदों व वैदिक यज्ञों में हिंसा निषेध

वेदों में मेध , आलभन आदि शब्दों को लेकर कई हिंसात्मक भ्रांतियां फैलाई गयी हैं |
निघंटु मे मेध यज्ञ के पन्द्रह नामों मे से एक नाम है | लोग भ्रान्ति फैलाते हुए इसका अर्थ हिंसा परक कर्म ( नर मेध अश्वमेध आदि ) से लगाते हैं | पर वेदों मे ही यज्ञ के लिए ही आया हुआ दूसरा शब्द अध्वर ( हिंसा रहित कर्म ) होता है तो यज्ञ हिंसा का समर्थक कैसे हो सकता है ।
|| मेध का अर्थ होता है ‘मेधा हिंसनयो: संगमे च ‘ ||
अर्थात् मेधा संवर्धन , हिंसा एवँ एकीकरण संगतिकरण ।
अध्वर के नाते हिंसा परक अर्थ को छोड़ने पर मेध का अर्थ हो जाता है मेधा संवर्धन ,एकीकरण संगतिकरण । जो की यज्ञ और वेदों की गरिमा के अनुरूप अर्थ है ।
इसके अतिरिक्त एक शब्द और आता है जिसका हिंसा परक अर्थ लगाया जाता है वह है आलभन ।
“आलभन्” शब्द की चर्चा की गयी है जिसका सामान्य अर्थ हिंसात्मक रूप से ही लिया जाता है । यजुर्वेद मे “आलभते” शब्द प्रयोग में आया है , उसका अर्थ निकाला गया “वध करना चाहीये” जबकि यह अर्थ ना तो युक्तिसंगत है ना ही विवेकसंगत है ।
“आङ” पूर्वक “लभ” धातु से निष्पन्न इस शब्द का अर्थ “स्पर्श” करना होता है । यथा:-
वत्सस्य समीप आनयनार्थम् आलम्भः स्पर्शो भवतीति ।। सुबोधिनी टीका , मीमांसा दर्शन 2/3/17॥
यहाँ आलम्भ धातु का अर्थ स्पर्श करना ही किया गया है । अतएव यज्ञीय कर्मों में इसका हिंसात्मक प्रयोग करना अविवेकपूर्ण है।
हिंसा परक अर्थ अध्वर के कारण छोड़ देने पर इसका अर्थ होता है : स्पर्श करना, प्राप्त करना आदि |
ब्राह्मणे ब्राह्मणं आलभेत क्षत्राय राजन्यं आलभेत ( यजु. ३०-५ )
हिंसा परक अर्थ करने पर इसका अर्थ होता है । ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण का वध करें और क्षात्रत्व के लिए क्षत्रीय का वध करें ( यह अर्थ कभी भी विवेक संगत नहीं हो सकता ) |
इसका अर्थ है ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण और शौर्य के लिए क्षत्रीय की संगति करें ( प्राप्त करें , स्पर्श करें ) |
यज्ञ में प्राणिहिंसा की बात कभी भी शास्त्रानुमोदित नहीं हो सकती ।
शास्त्रकार तो : अध्वर इति यज्ञनामध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः । (निरुक्त 2/7 श.) के अनुसार कहते हैं कि “अध्वर” यह यज्ञ का नाम है , जिसका अर्थ हिंसारहित कर्म होता है, ऐसा उद्घोष करते हैं ।
वैदिक वाङ्मय में भी इस प्रकार के अनेकानेक कथन है, यथा :
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ॥ ऋग्वेद 1/1/4 ॥
हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! तू हिंसारहित यज्ञों में ही व्याप्त होता है और ऐसे यज्ञों को ही सत्यनिष्ठ विद्वान लोग स्वीकार करते हैं ।
ऋग्वेद में ही एक स्थान पर कहा गया है :
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे || ऋग्वेद 1/1/8 ||
यहाँ भी परमेश्वर को अध्वरों अर्थात् हिंसारहित सब कर्मों में विराजमान बताया गया है ।
एक अन्य स्थान पर कहा गया है :
स सुक्रतुः पुरोहितो दमेदमेSग्निर्यज्ञस्याध्वरस्य चेतति क्रत्वा यज्ञस्य चेतति । ऋग्वेद 1/128/4 ॥
परमेश्वर और वेदविद् पुरोहित हिंसारहित यज्ञ का ही मनुष्यों को सदा उपदेश देते हैं ।
वैदिक यज्ञों में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, आदि “मेध” यज्ञों को भी इसी भ्रान्ति का शिकार होना पडा और लोग इनकी वास्तविक गरिमा से पूर्णतः अनभिज्ञ हो गये । अतः इस संदर्भ में इन शब्दों पर भी विचार करना अत्यंत आवश्यक है ।
1. अश्व की अवधारणा:
अश्व का प्रचलित अर्थ घोडा लिया जाता है । सांसारिक अर्थों में यह ठीक भी है, विशिष्ट यज्ञीय संदर्भ में तो इसकी मौलिक व्याख्या तक जाना होगा ।
अश्व शब्द की व्युत्पत्ति पर ध्यान दें – अश् + क्वन् , अश्नुते अध्वानम् अश्नुते व्याप्नोति ।
अर्थात् तीव्रगति वाला , मार्ग पर व्याप्त हो जाने वाला।
महाशनो भवति वा अश्वः , बहु अश्नातीति इति अश्वः” के अनुसार अधिक मात्रा में आहार करने वाला ही अश्व है ।
उक्त गुणों के कारण घोडे को अश्व की संज्ञा दी गयी । घोडे के लिये प्रयुक्त संज्ञाओं में भी ऐसे ही अर्थ सन्निहित हैं ।
अश्व को गुणवाचक सम्बोधन के रूप में ही शास्त्रों ने लिया है । जैसे:-
इंद्रो वै अश्वः – कौषीतकि ब्राह्मण (15/4) के अनुसार इंद्र ही अश्व है ।
सौर्यो वा अश्वः – गोपथ ब्राह्मण (उ. 3/19) के अनुसार सूर्य का सूर्यत्व ही ((तेज) ही अश्व है ।
वेदों में अनेक स्थान पर यज्ञाग्नि को ही अश्व माना गया है ।
ऋग्वेद मंत्र (1/163/2) के अनुसार:
गंधर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ।
अश्व सूर्य का प्रतीक है । वसुओं ने यज्ञीय अश्व को (अग्नि को ) सूर्य से प्रकट किया है ।
वीर्यं वै अश्वः : शौर्य ही अश्व है ।
श्रीर्वै अश्वः : सम्पदा ही अश्व है ।
अग्निर्वा अश्वः आज्यं मेधः के अनुसार अग्नि ही अश्व है और घृत ही मेध है ।
शतपथ ब्राह्मण के ही (13/3/3/5) की व्याख्या में स्वामि दयानंद जी लिखते हैं
अश्वश्वो यत ईश्वरो वा अश्व, अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत्सो श्व ईश्वरः ।
अर्थात् सारे संसार में संचरित होकर संव्याप्त होने वाला अश्व “ईश्वर” है ।
उक्त शास्त्रीय उद्धरणों पर ध्यान देने पता चलता है कि “अश्वमेध” में प्रयुक्त या कहीं और पर प्रयुक्त “अश्व” शब्द का अर्थ केवल घोडा मान लेना अपने अज्ञान के कारण ही सम्भव होता है । और इसी पूर्वाग्रह युक्त मान्यता के कारण अनेक भ्रांतियाँ उत्पन्न होती हैं ।
पशु का एक अर्थ होता है देखने वाला । परमात्मा सबको देखने वाला है । उसने सृष्टि को देखा तथा उसे सक्रिय करने के लिये स्वयम् को प्राणरूप में प्रत्येक घटक के साथ आबद्ध किया । यही प्राण सर्वत्र व्याप्त हो उठा , इसलिये ” अशु व्यापनोति ” के अनुसार वह अश्व भी कहलाया । जिस प्रकार आहुति यज्ञाग्नि के साथ एकाकार हो जाती है, उसी प्रकार, यह प्राण चेतना सृष्टि के विभिन्न घटकों के साथ एकरूप हो गई । यह यज्ञीय प्रक्रिया “मेध” कहलाई । इस प्रकार सृष्टि में प्राण-संचार की प्रक्रिया को प्रजापति द्वारा किया गया प्रथम अश्वमेध कहा गया ।
इसी प्रक्रिया को यजुर्वेद (31/15) में इस प्रकार व्यक्त किया गया है :-
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अब्ध्नन् पुरुषं पशुम् ।
देव जिस यज्ञ का विस्तार कर रहे थे, उससे यज्ञपुरुष ही पशुरूप में सम्बद्ध हुआ ।
Sri Aurobindo says, in His commentary upon Kena Upanishad, that the Supreme Breath- the Prana – the Breath to which so much importance is given in the Upanishads, is the pure life force itself,—first, because all the others are secondary to it, born from it and only exist as its special functions. It is imaged in the Veda as the Horse; its various energies are the forces that draw the chariots of the Gods.
The word, aśva, usually signifying a horse, is used as a figure of the Prana, the nervous energy, the vital breath, the half- mental, half-material dynamism which links mind and matter. Its root is capable, among other senses, of the ideas of impulsion, force, possession, enjoyment, and we find all these meanings united in this figure of the Steed of Life to indicate the essential tendencies of the Pranic energy.
2. “मेध” की अवधारणा
|| मेध का अर्थ होता है ‘मेधा हिंसनयो: संगमे च ‘ ||
अर्थात् मेधा संवर्धन , हिंसा एवँ एकीकरण संगतिकरण ।
मेध शब्द यज्ञ का ही पर्यायवाची है । इसका एक अर्थ ‘वध’ भी होता है, किंतु शास्त्रों ने उस अर्थ में उसका प्रयोग वर्जित किया है, इसका इस पोस्ट में ही वर्णन किया गया है । यहाँ अश्वमेध, गोमेध, नरमेध जैसे महान् प्रयोग की गरिमा के अनुरूप ही उसके अर्थ लिये जाने चाहियें ।
द्वेष , प्राणिहिंसा, क्रुरता आदि को शास्त्रों ने “अयज्ञीय” कहा है । अस्तु, यज्ञीय संदर्भ में इसका प्रयोग इस प्रकार नहीं किया जा सकता ।
“मेध” का अर्थ हिंसा अमान्य कर देने से इसका अर्थ “मेधा-सम्वर्धन”, संगतिकरण, एकीकरण ही रह जाता है ।
मेध शब्द कि व्युत्पत्ति मे उसे मिथ् ,मिद् , मेद् , आदि धातुओं से सम्बद्ध माना गया है । इनका अर्थ मिलन, जोडना, जानना, प्रेम करना, पकडना, आदि होता है ।
मेध के अर्थ बुद्धि, शक्ति-बल, बुद्धि-बल, यज्ञ, आदि कहे गये हैं । इसे यज्ञ, अर्पण, रस, पूज्य, सार,पवित्र आदि अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है ।
वाजसनेयी संहिता के 32वें अध्याय ” सर्वमेध-प्रकरण” मे मेध शब्द का अर्थ उपयुक्त संदर्भों में ही किये जाने का आग्रह भाष्यकारों ने किया है ।
3. अश्वमेध की अवधारणा
उपर लिखे शास्त्रीय अर्थों को समझने के बाद “अश्वमेध” का उसकी गरिमा के अनुरूप अर्थ आसानी से समझ में आ सकता है ।
महर्षि अरविंद ने अपने उपनिषद् भाष्यों मे और “वेद-रहस्य”(The Secret of The Veda ) ,तथा Hymns to The Mystic Fire मे इसका बृहत् विश्लेषण किया है ।
“अश्व” गतिशीलता का, शौर्य का, पराक्रम का, और “मेध” मेधाशक्ति , श्रेष्ठ बुद्धिमता का प्रतीक होने से अश्वमेध का सहज अर्थ होता है- शौर्य, पराक्रम तथा कल्याणकारी मेधाशक्ति का संयोग ।
परंतु मध्यकाल मे अनर्थकारी अर्थों के साथ इसकी गरिमा को नष्ट कर दिया गया । मूक पशुओं की हत्या को ही “मेध” मान लिया गया ।
“अश्व'” को क्षात्रशक्ति एवं “मेध” को ब्रह्मवृत्ति का प्रतीक मानने से उनका संयोग एक पवित्र एवं महान् यज्ञकर्म बनता है ।
उत्कृष्ट विचारशक्ति एवं श्रेष्ठ प्रयोजनों के समर्पित पुरुषार्थ के योग से ही आदर्श समाज एवं राष्ट्र की रचना हो सकती है इसीलिये शास्त्रों मे राष्ट्रनिर्माण को भी अश्वमेध कहा गया है । यथा:-
राष्ट्रं वाSअश्वमेधः (शतपथ 13/1/6/3)- अर्थात् राष्ट्र (का गठन) ही अश्वमेध है ।
इसी संदर्भ मे आगे कहा गया है :-
राष्ट्रं वै अश्वमेधः, तस्माद्राष्ट्री अश्वमेधेन यजेत् ।
अर्थात् राष्ट्र ही अश्वमेध है, इसलिये अश्वमेध के माध्यम से राष्ट्र का यजन (संगतीकरण, एकीकरण , संगठन ) करें ।
स्रोत :
1. श्री अरविंद साहित्य
2. पं. श्रीराम शर्मा “आचार्य” वाङ्मय
To be Contd…
Great post Chandan ji.
What do you think of Griffith’s translation of Yajurveda where Horse sacrifice comes in?
Thanks
Virendra
Sri Virendra jee,
Thank you !
I have already described, what is the actual meanings of words like Medha, Aśva and Aśvamedha (which is literally termed as Horse Sacrifice) in detail, in this article, further more explanation will be published in the next post.
In so far as the translation of Grifith or Max Muller is concerned, I would like to quote you a statement by Sri Aurobindo upon this topic, “Since the knowledge the Scripture conveys is so deep, difficult and subtle,-if it were easy what would be the need of the Scripture?-the interpreter cannot be too careful or too perfectly trained. He must not be one who will rest content in the thought-symbol or in the logical implications of the idea; he must hunger and thirst for what is beyond. The interpreter who stops short with the letter, is the slave of a symbol and convicted of error. The interpreter who cannot go beyond the external meaning, is the prisoner of his thought and rests in a partial and incomplete knowledge. One must transgress limits & penetrate to the knowledge behind, which must be experienced before it can be known; for the ear hears it, the intellect observes it, but the spirit alone can possess it. Realisation in the self of things is the only knowledge; all else is mere idea or opinion.”
I would like you to read following article:-
Commentaries and Translations of Vedic Scriptures by Foreign Philosophers:
http://cpdarshi.wordpress.com/2012/07/05/truth-about-commentaries-and-translations-of-vedic-scriptures-by-foreign-philosophers/
Jai Shree Krishna.