परम ऋत ( ऋतम् ) का तत्वज्ञान : 1

हमारे प्राचीन रहस्यवादी वैज्ञानिक ऋषियों ने वेद व् वेदान्त या अन्य आर्ष वाङ्गमय ग्रंथों में ” ऋतम् ” शब्द का प्रयोग किन उच्चस्तरीय भावों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त किया है ? यह एक अत्यंत विराट् व महत्वपूर्ण वैदिक संकल्पना है जो समस्त वैदिक तत्वज्ञान की धुरी है ।
ऋग्वेद का एक सूत्र हैं – ” ऋतस्य यथा प्रेत ” | अर्थात प्राकृत नियमो के अनुसार जीओ |
लेकिन इस सूत्र का मात्र इतना ही अर्थ नहीं हैं कि प्राकृत नियमो के अनुसार जीओ | सच तो ये हैं कि ऋत शब्द के लिए हिन्दी में अनुवादित करने का कोई उपाय नहीं हैं | इसलिए इसको समझना ज्यादा जरुरी हैं , क्योकि यह शब्द अपने आप में बहुत ही विराट हैं | प्राकृत शब्द से भूल हो सकती हैं | निश्चित ही वह एक आयाम हैं ऋत का , लेकिन बस एक आयाम | ऋत बहुआयामी हैं |
ऋत का अर्थ हैं – जो सहज हैं , स्वाभाविक हैं , जिसे आरोपित नहीं किया गया हैं | जो अंतस हैं आपका , आचरण नहीं | जो आपकी प्रज्ञा का प्रकाश हैं , चरित्र कि व्यवस्था नहीं | जिसके आधार से सब चल रहा हैं , सब ठहरा हैं , जिसके कारण अराजकता नहीं हैं | बसंत आता हैं और फूल खिलते हैं | पतझड़ आता हैं और पत्ते गिर जाते हैं | वह अदृश्य नियम , जो बसंत को लाता हैं और पतझड़ को | सूरज हैं , चाँद हैं , तारे हैं | यह विराट विश्व हैं और कही कोई अराजकता नहीं | सब सुसंबद्ध हैं | सब एक तारतम्य में हैं | सब संगीतपूर्ण हैं | इस लयबद्धता का ही नाम ऋत हैं |
इतने विराट विश्व के भीतर अकारण ही इतना सुनियोजन नहीं हो सकता | कोई अदृश्य उर्जा सबको बांधे हुए हैं | सब समय पर हो रहा हैं | सब वैसा हो रहा हैं जैसा होना चाहिए अन्यथा नहीं हो रहा हैं | यह जो जीवन कि आतंरिक व्यवस्था हैं …..न तो वृक्षों से कोई कह रहा हैं कि हरे हो जाओ , न ही पत्तो को कोई खीच खीच कर उगा रहा हैं ….बीज से वृक्ष पैदा होते हैं , वृक्षों में फूल लग जाते हैं | सुबह होती हैं , पंक्षी गीत गाने लगते हैं | सब कुछ समायोजित ढंग से हो रहा हैं | कही कोई संघर्ष नहीं हैं , सहयोग हैं – ऋत शब्द में यह सब समाया हुआ हैं |
यह सारा जीवन किसी एक अज्ञात सूत्र या अज्ञात उर्जा के सहारे चल रहा हैं | उस ऊर्जा का नाम ऋत हैं | उस अज्ञात सूत्र को खोज लेना ही सत्य को खोज लेना हैं |
ऋत का मतलब होता है—अस्तित्व का मूल आधार ! ऋत का मतलब होता है—अस्तित्व का गहनतम नियम ! ‘ऋत’ केवल सत्य नही: सत्य बहुत ही रुखा -सुखा शब्द है और काफी तार्किक गुणवता लिए रहता है अपने में ! हम कहते है , यह सत्य है और वह असत्य है ! और हम निर्णय करते है की कौन सा सिद्धांत सत्य है और कौन सा सिद्धांत असत्य है ! सत्य अपने में ज्यादा भाग तर्क का लिए रहता है ! यह एक तर्कमय शब्द है ! ऋत का अर्थ है: ब्रह्मांड की समस्वरता का नियम ; वह नियम जो की सितारों को गतिमान करता है ; वह नियम जिसके द्वारा मौसम आते है और चले जाते, सूर्य उदय होता और अस्त हो जाता, दिन के पीछे रात आती। और मृत्यु चली आती जन्म के पीछे ! मन निर्मित कर लेता है संसार को और अ-मन तुम्हे उसे जानने देता है जो कि है ! ऋत का अर्थ है ब्रह्मांड का नियम , अस्तित्व का अंतस्थल !
उसे सत्य कहने की अपेक्षा , उसे आस्तित्व का आत्यंतिक आधार कहना बेहतर होगा ! सत्य जान पड़ता है कोई दूर की चीज , कोई ऐसी चीज जो तुम से अलग अस्तित्व रखती है !
ऋत है तुम्हारा अंतरतम अस्तित्व और केवल अंतरतम अस्तित्व तुम्हारा ही नही है , बल्कि अंतरतम अस्तित्व है सभी का —-
[संदर्भ स्रोत: ऋतम्भरा — ओशो ( पतंजलि योग सूत्र ) ]
ऋत प्राचीन वैदिक धर्म में सही सनातन प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को कहते हैं, यानि वह तत्व जो पूरे संसार और ब्रह्माण्ड को धार्मिक स्थिति में रखे या लाए। वैदिक संस्कृत में इसका अर्थ ‘ठीक से जुड़ा हुआ, सत्य, सही या सुव्यवस्थित’ होता है। यह हिन्दू धर्म का एक मूल-सिद्धांत है। कहा गया है की ‘ऋत ऋग्वेद के सबसे अहम धार्मिक सिद्धांतों में से एक है’ और ‘हिन्दू धर्म की शुरुआत इसी सिद्धांत की शुरुआत के साथ जुड़ी हुई है’। इसका ज़िक्र आधुनिक हिन्दू समाज में पहले की तुलना में कम होता है लेकिन इसका धर्म और कर्म के सिद्धांतों से गहरा सम्बन्ध है।
सन्दर्भ : The artful universe: an introduction to the Vedic religious imagination, William K. Mahony, SUNY Press, 1998,… (Rta not only characterized reality and truth, Rta was the principle on which reality and truth were based …
ऋत की अखंडता देश और काल से ऊपर की वस्तु है, दूरी और समय का कैसा भी व्यवधान ऋत के नियमों में परिवर्तन नहीं कर सकता। इसी आश्वासन से प्रेरित होकर वैज्ञानिक अहर्निश अपने प्रयोग और अन्वेषण में निरत रहते हैं। प्रकाश और ताप, विद्युत और चुंबक, सृष्टि के इन देवों की सर्वत्र एकरस गति पाई जाती है। सहस्नतिसहस्र परीक्षण करने पर भी इनके नर्तन की अस्खलित गति में किसी प्रकार का विपर्यय नहीं पाया गया। उषा हमारे आकाश में नित्य प्रति संचरण करने आती है। ऋषि ने उसे ‘पुराणी युवति’ कहा है। सृष्टि के पहले दिन से जब उसके रूप को देखकर भगवान हंसे होंगे क्या आज तक उसके रमणीय ललाम भाव में किसी ने कुछ अंतर नहीं देखा है? इसका कारण विश्व का अखंड नियम है जो सर्वत्र फैला हुआ है। वैज्ञानिक इसे सुप्रीम लॉ कहकर श्रद्धा से प्रणाम करते हैं। पूर्व ऋषियों ने इसे ऋत कहा है। पृथिवी जिस संचार पथ या क्रांतिवृत्त पर घूमती है, वह पथ विश्व के ऋत ने उसके लिए स्थिर किया है। सौरमंडल में एवं सर्वत्र नक्षत्र समूह के आकर्षण-प्रत्याकर्षणों का जो अंतिम निर्णय हुआ उसी ने पृथिवी के लिए ऋत मार्ग की व्यवस्था की। सूर्य, चंद्र, ग्रह, उपग्रह सभी ऋत पथ के अनुयायी हैं।
वेदों में देवों को ‘ऋतावृध:’ अर्थात ऋत से बढ़ने वाला कहा गया है। ऋत को जानना ही सच्ची प्रज्ञा है। ऋतज्ञ और ऋतधी विशेषज्ञ ज्ञानी के लिए प्रयुक्त हुए हैं। अग्नि, ऋत से घिरा हुआ (ऋतप्रवीत) है।
ज्ञानाग्नि और ऋत का शाश्वत मेल है। ज्ञान चक्षु जहां देखता है उसे विश्व-नियंता के ऋत का दर्शन होता है। ऋषि ने कहा है –
परि द्यावा पृथिवी सद्य इत्व:
परि लोकान् परि दिश: परि स्व:।
ऋतस्य तन्तुं विततं विचृत्य तदभवत् तदपश्चत् तदासीत्।।
द्युलोक और पृथिवी, लोकांतर और दिशाएं सर्वत्र मैंने ऋत के तंतु को फैला हुआ देखा। वह ऋत ही सब कुछ हुआ है। उस ऋत के सूत्र को देखने के लिए मैंने समस्त भवनों की यात्रा की –
परि विश्वा भुवनान्यायम् ऋतस्य तन्तुं विततं दृशे कम्। (अथर्ववेद)
अर्थात मैं निखिल ब्रह्मांड के सब लोकों में ऋत के फैले हुए तंतु को देखने के लिए घूम आया।
कागभुशुंडि ने अवध से ब्रह्मलोक और शिवलोक से इंद्रलोक पर्यन्त घूमकर प्राप्त किया था। सर्वत्र एक ही वैष्णवी माया का दर्शन हुआ। वे जहां गए वहीं राम का हाथ उनके पीछे लगा रहा –
ब्रह्म लोक लगि गयउं मैं चितयउं पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सन राम भुजहिं मोहिं तात।।
सप्तावरन भेद करि जहां लगे गति मोरि।
गयउं तहां प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउं बहोरि।।
अर्थात ब्रह्मलोक तक भागते हुए जब-जब मैंने पीछे मुड़कर देखा, अपने से दो ही अंगुल की दूरी पर राम का हाथ मुङो दीख पड़ा। विश्व के सात परदों को भेदकर जहां तक जा सका मैं गया, परंतु राम की भुजा ने मेरा पीछा न छोड़ा। राम की भुजा राम के नियम की प्रतीक मात्र है। देश और काल के साथ अन्य सब कुछ परिवर्तन को प्राप्त हो जाता है। परंतु ‘प्रजापति का नियम’ सदा सर्वत्र एक सा बना रहता है। राम का नियम स्वयं राम है। विधाता और उसका सृष्टि-नियम एक दूसरे से प्रथक नहीं किये जा सकते। कागभुशुंडि ने सप्त आवरणों को पार करते हुए लोक लोकांतरों में और सब कुछ बदलते हुए देखा पर अकेले राम वैसे-के-वैसे बने रहे-
भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति विचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउं प्रभु राम न देखेउं आन।।
(उत्तर कांड, दोहा. 81)
राम के उदर में जो ये अनंत ब्रह्मांड निकाय हैं उनमें सृष्टि की विचित्रता वर्णन से परे है। लोक लोकांतरों में पृथिवी, नदी, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, पशु और प्राणियों के प्रपंच को देखकर मानवी बुद्धि चकराने लगती है। वैज्ञानिक लोग सूम के धन की तरह एक-एक कौड़ी जोड़ते हुए इस विचित्र विश्व के विविध ज्ञान का संग्रह करते हैं। प्रशांत महासागर की तलहटी में पड़े हुए घोंघों की पाचन- प्रणाली और स्वांस नली की टटोल करते हुए उनके युग बीत जाते हैं। परंतु इस बहुधा विस्तार का कहीं अंत नहीं मिलता। इन सबके भीतर जो अंतर्यामी सूत्रत्मा है वही इस प्रपंच के उन्मत्त विस्तार को अर्थवान बनाता है। उस अंतर्यामी सूत्र का वाचक ऋत है।
सीता के चरणों में चोंच मारकर भाग हुए जयंत की कथा का रहस्य भी यही है। ऋतावरी देवी के चरणों का जो अपराधी है, उसे ब्रह्मांड में कहीं भी शरण नहीं मिल सकती।
साभार: वासुदेव शरण अग्रवाल जी
ऋत के संबंध में ऋगवेद (10.190) के मन्त्र 1 से 3 के अनुसार सर्वप्रथम प्रदीप्त ज्योतिर्मय-तत्व से ऋत और सत्य ये दो तत्व प्रकट हुए; इन से रात्रि, फिर जलयुक्त-समुद्र उत्पन्न हुआ। उस जलयुक्त समुद्र के बाद संवत्सर (=कालचक्र) उत्पन्न हुआ। तत् पश्चात्, पूर्वकल्प के तुल्य ही सूर्य, चन्द्र, अहोरात्र, द्युलोक, पृथिवी और अंतरित्र उत्पन्न हुए। यह वर्णन सृष्टि की व्ययुत्पत्ति का प्रतीकात्मक वर्णन है। इन में से ‘ज्योति’ ‘संवत्सर’ (=कालचक्र) और ‘सत्य’ अर्थात् सत्ता का संबंध उषा से सीधा है।
पद़्मश्री डा.कपिलदेव द्विवेदी ‘‘वैदिक दर्शन’’ में कहते है कि उपरोक्त सूक्त में सृष्टिपूर्व नियम को ‘अभीध्द-तपस’ कहा गया है जिसका तात्पर्य है कि ये ज्योतिर्मय अग्नि तत्व का प्रकाश-पुंज है। इसी में एक विस्फोट से ऋत एवं सत्य प्रकट होते हैं। ‘ऋत’.-शाश्वत तत्व है और सत्य, -परिणामी सत्य। इन्हें प्रचलित रुप में अग्नि और सोम कह सकते है। इन दो तत्वों से सृष्टि का आरंभ होता है इसे ही इस विषय में ऋग्वेद का सत्य कह सकते है र वैदिक उषा इस ऋत-व्यस्था का एक अंग है।
यजुर्वेद (सूक्त 32/12) के अनुसार विराट-पुरुष (=ब्रह्म) ने इस शाश्वत ऋत-व्यवस्था के तंतु को सर्वत्र फैलाया है जो अपनी शक्ति से स्थिर है। जो इस व्यवस्था को जान लेता है, वह आत्मसाक्षात्कार पा लेता है।
साभार: अशोक मनीष जी , श्री अरविन्द कृत सावित्री महाकाव्य की उषा की व्याख्या में।
वैदिक साहित्य में ‘ऋत’ शब्द का प्रयोग सृष्टि के सर्वमान्य नियम के लिए हुआ है। संसार के सभी पदार्थ परिवर्तनशील हैं किंतु परिवर्तन का नियम अपरिवर्तनीय नियम के कारण सूर्य-चंद्र गतिशील हैं। संसार में जो कुछ भी है वह सब ऋत के नियम से बँधा हुआ है। ऋत को सबका मूल कारण माना गया है। अतएव ऋग्वेद में मरुत् को ऋत से उद्भूत माना है। (४.२१.३)। विष्णु को ‘ऋत का गर्भ’ माना गया है। द्यौ और पृथ्वी ऋत पर स्थित हैं (१०.१२१.१)। संभव हैं, ऋत शब्द का प्रयोग पहले भौतिक नियमों के लिए किया गया हो लेकिन बाद में ऋत के अर्थ में आचरण संबंधी नियमों का भी समावेश हो गया। उषा और सूर्य को ऋत का पालन करनेवाला कहा गया है। इस ऋत के नियम का उल्लंघन करना असंभव है। वरुण, जो पहले भौतिक नियमों के रक्षक कहे जाते थे, बाद में ‘ऋत के रक्षक’ (ऋतस्य गोपा) के रूप में ऋग्वेद में प्रशंसित हैं। देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे हम लोगों को ऋत के मार्ग पर ले चलें तथा अनृत के मार्ग से दूर रखें (१०.१३३.६)।
ऋत को वेद में सत्य से भि उच्चस्तरीय अर्थों में उससे पृथक् माना गया है। ऋत वस्तुत: ‘सत्य का नियम’ है। अत: ऋत के माध्यम से सत्य की प्राप्ति स्वीकृत की गई है। यह ऋत तत्व वेदों की दार्शनिक भावना का मूल रूप है। परवर्ती साहित्य में ऋत का स्थान संभवत: धर्म ने ले लिया।
वैदिक ऋषियों का विश्वास था कि प्रकृति के सभी कार्य सर्वव्यापी नियम के अनुसार होते हैं जिससे सभी जीव और विषय परिचालित होते हैं. इसे ऋत कहते हैं जिसके द्वारा चन्द्र, सूर्य आदि ग्रह अपने स्थानों पर अवस्थित रहते हैं । इसी ऋत के के सार्वभौमिक नियम के द्वारा सभी जीवों को कर्म के फल मिलते हैं.
ऋत सत्य का सार्वभौमिक रूप है । ऋत के अमृत से ही व्यक्ति जीवित रहता है ,यह उसे अमृतत्व प्रदान करता है। लोक अर्थात संसार में जीव ऋत का पान करता हुवा पुण्य को प्राप्त करता है ,उसे यश की प्राप्ति होती है। ऋत ही एक अक्षर है ,जो ब्रह्म के समकक्ष है । ऋत सत्य के आचरण के लिए ही होता है । ऋत एवं सत्य स्वाभाविक धर्म हैं ;ऋत की सिद्धि ही सत्य की सिद्धि है । ऋत और सत्य एक रूप हैं । ऋत ह्रदय को आकर्षित करने वाला होता है । ऋत और सत्य यदि एक हैं ,तो उनमें अंतर है भी या नहीं ? यह प्रश्न सहजत: उत्पन्न होता है । वस्तुत: ऋत और सत्य में सूक्ष्म और व्यापक अंतर भी है । प्रथम ऋत तो प्राकृतिक एवं स्वाभाविक सम्बन्ध पर आधारित होता है ;जबकि सत्य इन्द्रिय- जनित संबंधों पर ही आधारित होता है । इन्द्रिय- जनित ज्ञान की अपनी सीमा होती है ;यह ज्ञान सीमा – सापेक्ष होता है। यह सत्य इन्द्रिय -शिथिलता के कारण अधूरा ,अपूर्ण और असत्य भी हो सकता है। अंधों और हाथी की कहानी तो प्रसिद्ध ही है ;सत्य निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष होता है। जबकि ऋत एक स्वाभाविक, एक सहज तथा सतत रहने वाली प्रक्रिया है। यह प्राकृतिक धर्म की अटल स्थिति है। सूर्य-चन्द्र के समान गणितीय निष्चल स्थिति है। सत्य सामान्य ज्योतिषीय गणना हो सकती है। जो ठीक भी हो सकता है ;सम्भावना तो है ही। ऋत आध्यात्मिक है तो सत्य सांसारिक है ;महत्त्व तो दोनों का ही है ।
देश – काल भी इसी ऋत के अधीन है, वे भी उसके संग समन्वय की संगत करते नज़र आते हैं, हर क्षण अपने आप कोप्रासंगिक नवीनता से भरकर सजीवता से उस सर्वोच्य महापथ की ओर आशा भरी निगाहों से देखते हैं,जिसका अनुक्रमसदैव शुभकारी है। परोक्ष-अपरोक्ष परिवर्तन उसी ऋत का सौन्दर्य है सही मायनों में वह उसका जन्मजात गुणधर्म जानपड़ता है।ज्ञात – अज्ञात, ज्ञेय – अज्ञेय, नित्य – अनित्य, सत्य – असत्य जैसे तमाम तत्व उसकी ही तीख़ी धार पर स्वयं को परखते हैं। शायद इसी के इर्दगिर्द वह प्राण, अथवा चेतना सरीखी शक्ति संचालित है या यूँ कहें की उनकी गति भी ऋत में निहित है।
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