समता श्रीअरविन्द की दृष्टि में

समता सच्ची आध्यात्मिक चेतनाका प्रमुख अवलंब है और जब साधक किसी प्राणिक वृत्ति को भावना या वाणी या कर्ममें अपनेको बहा ले जाने देता हैं तब वह इसी समतासे भ्रष्ट होता है ।
समता ठीक वही चीज नही है जो सहनशीलता है,–यद्यपि इसमें कोई संदेह नही कि सुस्थिर समता मनुष्यकी सहनशीलता और धैर्यके शक्तिको बहुत अधिक, यहांतक कि असीम रूपमे बढ़ा देती है ।
समताका अर्थ है अचंचल और स्थिर मन और प्राण, इसका अर्थ है घटित होने- वाली या कही गयी या तुम्हारे प्रति की गयी वस्तुओंसे स्पृष्ट या विचलित न होना, बल्कि उनकी ओर सीधी नजरसे देखना, व्यक्तिगत भावनाद्वारा सृष्ट विकृतियोंसे मुक्त रहना, और उस चीजको समझनेका प्रयास करना जो उनके पीछे विद्यमान हो, यह समझना कि वे क्यों घटित होती हैं, उनसे क्या शिक्षा लेनी चाहिये, हमारे अन्दर ऐसी कौनसी चीज हैं जिसके विरुद्ध वे निक्षिप्त की गयी हैं और उनसे कौनसा आंतरिक लाभ उठाया जा सकता या उनकी सहायतासे कौनसी प्रगति की जा सकतीं है ।
इसका अर्थ है प्राणिक क्रियाओंके ऊपर आत्मप्रमुत्व,–क्रोध और असहिष्णुता और गर्व तथा साथ ही कामना और अन्य चीज़ें – इन्हें अपनी भावात्मक सत्तापर अधिकार नहीं जमाने देना और आंतरिक शांतिको भंग नही करने देना, जल्दबाजीमें और इन चीजोंके द्वारा प्रणोदित होकर न बोलना और न कार्य करना, सर्वदा आत्माकी एक स्थिर आंतर स्थितिमें रहकर कार्य करना और बोलना ।

इस समताको किसी पूर्णत: पूर्ण मात्रामें प्राप्त करना आसान नहीं है, परन्तु साधकको इसे अपनी आंतरिक स्थिति तथा बाह्य क्रियाओंका आधार बननेके लिये सर्वदा अधिकाधिक प्रयास करते रहना चाहिये ।
समताका एक दूसरा अर्थ भी है — मनुष्यों और उनकी प्रकृति और कर्म तथा उन्हें चलानेवाली शक्तियोंके विषयमें एक सम दृष्टिकोण बनाये रखना, यह चीज मनुष्यकी दृष्टि और विचारमें विद्यमान समस्त व्यक्तिगत भावनाको तथा यहांतक कि समस्त मानसिक पक्षपातको मनसे दूर हटाकर मनुष्य तथा उनकी प्रकृति आदिके सत्यको देखनेमें सहायता पहुँचाती है ।
व्यक्तिगत भावना सर्वदा विकृति उत्पन्न करती है और मनुष्योंके कामोंमें, केवल स्वयं कामोंको नहीं, बल्कि उनके पीछे विद्यमान उन चीजोंको दिखाती है जो प्रायः वहां नहीं होती । उसका परिणाम होता है गलत- फहमी और अ निर्णय जिससे बचा जा सकता था, उस समय सामान्य परिणाम लानेवालींचीजे बहुत बड़ा रूप ग्रहण कर लेती हैं ।
मैंने देखा है कि इसी चीजके कारण जीवनमें इस प्रकारकी आधीसे अधिक अनपेक्षित घटनाएं घटती हैं । परन्तु साधारण जीवनमें व्यक्तिगत भावना तथा असहिष्णुता सर्वदा ही मानव-स्वभावका अंग बनी रहती हैं और आत्मरक्षाके लिये आवश्यक हों सकतीं हैं, यद्यपि, मेरी रायमें, वाह भी, मनुष्यों और वस्तुओंके प्रति एक प्रबल, उदार और सम मनोभाव रखना आत्मरक्षा- का उससे बहुत अधिक अच्छा उपाय सिद्ध होगा । परन्तु एक साधकके लिये, उनको अतिक्रम करना और आत्माकी स्थिर शक्तिमें कही अधिक निवास करना उसकी प्रगति- का एक आवश्यक अंग है ।
आंतरिक प्रगतिकी पहली शर्त्त यह है कि प्रकृतिके किसी भी भागमें जो कुछ भी गलत क्रिया हों या हो रहीं हो — गलत विचार, गलत भावना, गलत वाणी,गलत कार्य हों उसे पहचाना जाय और गलतसे मतलब है वह चीज जो सत्यसे, उच्चतर चेतना और उच्चतर आत्मासे, भगवानके पथसे विरत हों । एक बार पहचान लेनेपर उसे स्वीकार करना चाहिये, उसपर मुलम्मा नहीं चढ़ाना चाहिये और न उसका समर्थन करना चाहिये,–उसे भगवानके प्रति अर्पित कर देना चाहिये जिसमे कि दिव्य ज्योति और भगवत्कृपा अवतरित हों और उसके स्थानमे सत्य चेतनाकी यथार्थ क्रिया स्थापित करें ।
श्री अरविन्द
‘श्री अरविन्द के पत्र – भाग – २’ से उद्धृत