केन उपनिषद् व् ईशावास्य उपनिषद् : तुलनात्मक समीक्षात्मक अध्ययन

केन उपनिषद् व् ईशावास्य उपनिषद् - तुलनात्मक समीक्षात्मक अध्ययन

​बारह महान उपनिषदों की रचना प्राचीन ज्ञान के एक ही कलेवर की परिधि में हुई है; किन्तु वे विभिन्न दिशाओं से उस ज्ञान के प्रति अग्रसर होते हैं। ब्रह्मविद्या के महान साम्राज्य में प्रत्येक उपनिषद अपने ही द्वार से प्रवेश करता है, अपने ही मार्ग अथवा अपनी ही वक्र गतियों का अनुसरण करता है, अपने ही गन्तव्य को लक्ष्य बनाता है।
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ईश तथा केन दोनों ही उपनिषद एक ही महती समस्या से सम्बन्धित हैं। वह है अमृतत्व के पद की प्राप्ति; दिव्य, सर्वेश्वर, सर्वाधिपति ब्रह्म का जगत् तथा मानव चेतना के साथ सम्बन्ध; सत्य तथा दिव्यानन्द में प्रवेश। जिस प्रकार ईशोपनिषद परमानन्द के प्रति अभीप्सा से समाप्त होता है उसी प्रकार केनोपनिषद ब्रह्म की आनन्द के रूप में परिभाषा से तथा तद् ब्रह्म की आनन्द के रूप में उपासना और अर्चना के आदेश से समाप्त होता है। तथापि उनके आरम्भ बिन्दु में भेद है, दृष्टिकोण में भी भेद है, मनोभाव में एक प्रत्यक्ष अन्तर है।

कारण, इन दोनों उपनिषदों का सुनिश्चित प्रतिपाद्य विषय सर्वथा एक ही नही है। ईशोपनिषद की समस्या है जगत्, जीवन, कर्म तथा मानव नियति के सर्वाङ्ग समस्या, जो ब्रह्म के परम सत्य के साथ उनके सम्बन्ध को लेकर है। वह आने 18 मंत्रों में जीवन की अधिकांश मूलभूत समस्याओं को समाविष्ट कर लेता है और परमात्मा तथा उसके जीवन मे व्यक्त रूपों, परमेश्वर और कर्म विधानों के भाव से जो सभी द्वारों को खोल देने वाली कुंजी के समान है, उन समस्याओं का एक विहंगावलोकन करता है। उसका वादी स्वर है – समस्त सत्ताओं की एकता।

केनोपनिषद एक अधिक सीमित समस्या की ओर अग्रसर होता है, एक अधिक सुनिश्चित तथा सीमित जिज्ञासा से आरम्भ करता है। वह केवल ब्रह्म-चैतन्य के साथ मनोमयी चेतना के सम्बन्ध तक ही अपने विषय को सीमित रखता है, और अपने विषय को सुनियत परिधि से बाहर नही घूमता। भौतिक जगत् तथा शारीर जीवन को सहज ही स्वीकार किया गया है, उनकी शायद ही कोई चर्चा की गयी है किन्तु भौतिक जगत् तथा शारीरिक जीवन का हमारे लिए अस्तित्व केवल हमारे अन्तरात्मा तथा आन्तर जीवन के नाते है।

हमारे मानसिक उपकरण बाह्य जगत् का जैसा जैसा उपस्थापन करते हैं, हमारी प्राणशक्ति मन कब अधीन होकर उस जगत् के विषयों और सम्पर्कों के साथ जैसा जैसा व्यवहार करती है, वैसा वैसा ही हमारा बाह्य जीवन और अस्तित्व होता है। मूलतः नहीं, किन्तु क्वचित व्यवहारतः , जगत् हमारे लिए वह है जो हमारा मन और हमारी इन्द्रियाँ उसे प्रस्तुत करती हैं, जीवन वह है जो हमारी मनोवृत्ति अथवा अर्धमानसीकृत प्राणिक सत्ता उसे बना डालने का संकल्प करती है।

केनोपनिषद प्रश्न करता है: ये मानसिक उपकरण क्या है? यह मानसिक जीवन क्या है को बाह्य जीवन का उपयोग करता है? क्या वे अन्तिम साक्षी हैं? सर्वोपरि और अन्तिम शक्ति हैं? क्या मन-प्राण-देह ही सर्वस्व हैं अथवा यह सत्ता अपने से किसी महत्तर अधिक सशक्त, परात्पर गहनतर वस्तु का आवरण मात्र है?

ईशावास्योपनिषद समस्त सत्ताओं के समन्वय द्वारा जिस निष्कर्ष पर पहुँचता है वह है कि, मनस्तत्व, प्राणतत्व, इन्द्रियतत्व के पीछे जो परम सत्य है, वह अनिवार्यतः वह है जो इनका अतिक्रमण करके इनका नियमन करता है। वह परमेश्वर है, सर्वाधिपति परम् देव है।

केनोपनिषद उसी निष्कर्ष पर एक भिन्न प्रतिवाद के द्वारा पहुंचता है जो एकमेव नियामक आत्मा सत्ता और इस सब बहुविध अस्तित्व के बीच है जो निज सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता पर निर्भर है।

दोनों समस्त पदार्थों को एक ही सत्य तत्व में समाहित करने के लिए अपनी अपनी पद्धति का अनुसरण करते हैं, किन्तु दोनों का निष्कर्ष एक ही है। भेदात्मक सत्ता, भेदात्मक स्वत्व तथा भेदात्मक सुख के परित्याग से सर्वाधिपति, सर्वभोक्ता की प्राप्ति होती है।

एक तरफ जहां ईशावास्योपनिषद के ऋषि संबोधित करते हैं एक जाग्रत साधक को; अतः वह सर्वाशयी सर्वनिवासी ईश (ईशावस्यमिदम् सर्वं..मंत्र 1) से आरंभ होता है और सर्व-संभूति-सम्पन्न परमात्मा कीओर अग्रसर होते है (स पर्यगाच्छुक्रम कायम व्रणम्सनाविरं, मन्त्र 8..सम्भूत्यामृतमश्नुते मन्त्र 14)और लौटते है वैश्व गति के परमात्म भाव मे ईश्वर की ओर (“अग्ने नय सुपथा… मन्त्र 18) कारण उसे असृष्ट परम् तत्व के साधक के प्रति कर्मो का समर्थन करना है।

वहीं दूसरी तरफ, केनोपनिषद के ऋषि संबोधित करते हैं उस व्यक्ति को जो बाह्य जीवन से आकृष्ट है, जो अभी पूरी तरह जाग्रत नहीं है, न पूर्णतया अभी साधक है; अतः वह ब्रह्म से आरंभ करते हैं जो मनस्तत्व के परे आत्मा तत्व है (ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः.. मन्त्र 1:1), और हमारी मानसिक तथा प्राणिक प्रक्रियाओं में निहित ईश्वर के रूप में ब्रह्म की ओर अग्रसर होते हैं (..तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि..मन्त्र 1:4,5,6,7,8), क्योंकि उन्हें इस व्यक्ति को उसकी प्रतीतिगत और बाह्य सत्ता से ऊपर की ओर संकेत करना है।

किन्तु केन के दो प्रारम्भिक अध्याय ईशावास्योपनिषद के परमात्मा तथा उसकी संभूति के सिद्धान्त का ही इस दूसरे दृष्टिकोण से कुछ कम व्यापकता से कथन करते हैं; उसके अन्तिम दो अध्याय एक अन्य वैचारिक पदों द्वारा ईशावास्योपनिषद के ईश्वर तथा उसकी गति के सिद्धांत की पुनरावृत्ति करते हैं।

​- श्रीअरविन्द

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