06- वेद परिचय : यज्ञ के विवादित प्रसङ्ग

यज्ञीय प्रक्रिया का विशेष उल्लेख तो यजुर्वेद खण्ड में किया गया है। अस्तु, उससे सम्बन्धित भ्रान्तियों का समाधान भी उसी मे दिया गया है, किन्तु यज्ञ और वेद परस्पर एक दूसरे से गुँथे हुए हैं । इसलिए उससे सम्बन्धित समाधानों का आवश्यक उल्लेख यहाँ भी किया जा रहा है।
यह तथ्य ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि वेद में यज्ञ, अग्निहोत्र परक कर्मकाण्ड से परे और भी बहुत कुछ है। वेदार्थ के क्रम में उन सभी सन्दर्भो में दृष्टि खुली रखनी चाहिए।
मेध :- मेध शब्द को लेकर अनेक भ्रान्तियाँ फैली हई हैं । वेद में यह शब्द बार-बार प्रयुक्त भी हुआ है, इसलिए उस सन्दर्भ में दृष्टि स्पष्ट कर लेनी चाहिए। निघण्टु में यज्ञ के १५ (पन्द्रह) नाम गिनाए गये हैं, उनमें एक नाम ‘मेध’ भी है। अस्तु वेद में मेध’ का अर्थ ‘यज्ञ’ ही मानना उचित है।
यहाँ लोग यज्ञ में ‘मेध’ का अर्थ ‘हिंसा’ करने का प्रयास करते हैं, किन्तु स्मरणीय है कि निघण्टु में यज्ञ का एक नाम ‘अध्वर’ (हिंसा रहित कर्म) भी है। अस्तु, हिंसा रहित कर्म में मेध का अर्थ हिंसा परक करना अनुचित है।
‘मेध’ का व्याकरण परक अर्थ होता है- (मेधा हिंसनयोः संगमे च) मेधा संवर्धन, हिंसा एवं एकीकरण- संगतिकरण । अध्वर के नाते हिंसापरक अर्थ अमान्य कर देने पर मेधा संवर्धन तथा एकीकरण-संगतिकरण ही मान्य अर्थ रह जाते हैं, जो यज्ञ एवं वेद दोनों की गरिमा के अनुरूप हैं।
वेदोक्त यज्ञीय सन्दर्भ में ‘बलि’ एवं ‘आलभन’ यह दो शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जिनके हिंसापरक अर्थ करने के प्रयास किये जाते हैं। मेध की तरह उनका भी एक अर्थ यदि हिंसापरक है, तो भी ‘अध्वर’ हिंसा रहित कर्म में हिंसा परक अर्थ नहीं किये जाने चाहिए। उनके शेष अर्थों के साथ यज्ञीय संगति बहुत ठीक बैठ जाती है।
बलि – यह शब्द बल्- इन् से बना है, जिसके कई अर्थ होते हैं, जैसे-(१) आहुति, भेंट, चढ़ावा (२) भोज्य पदार्थ अर्पित करना। प्रचलन की दृष्टि से देखें तो भी उक्त भाव ही सिद्ध होते हैं- सद्गृहस्थ के नित्यकर्मों में बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान है। उसके अन्तर्गत भोज्य पदार्थों को यज्ञार्थ अर्पित किया जाता है, किसी प्रकार की हिंसा की प्रक्रिया प्रचलित नहीं है। श्राद्ध कर्म में गो बलि, कुक्कुर बलि, काक बलि, पिपीलिकादि बलि आदि का विधान है। उसके अन्तर्गत सम्बन्धित प्राणियों का वध नहीं किया जाता, उनके लिए भोज्य पदार्थ ही भेंट किया जाता है।
आलभन – इसका भी हिंसा परक अर्थ छोड़ देने पर अन्य अर्थ होते हैं,स्पर्श करना, प्राप्त करना आदि । ‘ब्रह्मणे ब्राह्मणं आलभेत । क्षत्राय राजन्यं आलभेत’ (यजु० ३०.५) का अर्थ हिंसा परक करने से होता है, ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण का वध करे और क्षात्रत्व के लिए क्षत्रिय का वध करे। यह अर्थ सर्वथा असंगत लगता है । विवेक संगत अर्थ होता है – ब्राह्मणत्व के लिए बाह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय को प्राप्त करे या संगति करे। अस्तु, यज्ञ एवं वेद की गरिमा परक स्वाभाविक अर्थों को ही लिया जाना चाहिए।
यज्ञीय कर्मकाण्ड के अन्तर्गत अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, पितृमेध आदि प्रकरणों की संगति ऊपर वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर ही ठीक प्रकार बैठती है। इन प्रकरणों का उल्लेख यजुर्वेद में विशेषरूप से किया गया है। यहाँ तो मात्र इतना आग्रह किया जा रहा है कि सुधीजन वेदार्थ के क्रम में यज्ञ की विराट् प्रक्रिया को ही ध्यान में रखकर चलें।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
संदर्भ ग्रन्थ : अथर्ववेद-संहिता परिचय वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा