07- अथर्ववेद परिचय : ऋषि, देवता, छन्द

वेदार्थों को खोलने में ऋषि, देवता एवं छन्दों की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। अथर्ववेद के ऋषि, देवता एवं छंदों की विशिष्टता पर एक दृष्टि डाल लेना उपयुक्त होगा।
ऋषि – अथर्ववेद के अधिकांश सूक्तों के ऋषि ‘अथर्वा’ (अविचल प्रज्ञायुक्त – स्थिरप्रज्ञ) ऋषि हैं। अन्य अनेक सूक्तों के ऋषियों के साथ भी अथर्वा का नाम संयुक्त है, जैसे अथर्वाचार्य, अथर्वाकृति, अथर्वाङ्गिरा, भृग्वङ्गिरा ब्रह्मा आदि ।अथर्ववेद के ऋषियों में बहुत से ऐसे नाम हैं ,जो व्यक्तिवाचक नहीं, भाववाचक – अशरीरी लगते हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, भुवन, भुवन-साधन, भर्ग, आयु, यक्ष्मानाश, सूर्या, सावित्री आदि। स्पष्ट है कि मन्त्रद्रष्टा (मंत्रों के प्रथम प्राप्तकर्त्ता ) ने जिस चेतन धारा के साथ एकात्मता स्थापित करके मंत्र प्राप्त किए,उसी सचेतन दिव्य धारा को ऋषि माना, स्वयं को नहीं। उन्हें वे चेतन धाराएँ मूर्तिमान् व्यक्तित्वयुक्त प्रतीत होती रही होंगी।
देवता – अथर्ववेद में देवताओं की संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा दोगुनी से भी अधिक है। यह इसलिए भी है, कि इसके वर्ण्य विषय बहुत अधिक हैं, जिसे लक्ष्य करके मंत्र कहा जाता है, उसे देवता कहते हैं। अत: उनका भाववाचक होना, तो आम बात है, किंतु अथर्ववेद में देवताओं के संबोधन कुछ विचित्रता लिए हुए हैं, जैसे अज (अजन्मा), मातृनामा, ईष्योंपनयन, यक्ष्मनाशन, कृत्यादूषण, कालात्मा, कामात्मा, शतौदनागौ, सप्त ऋषिगण, सभा आदि।
मन्त्राथों के संदर्भ में जहाँ देवताओं की अवधारणा स्पष्ट करने की आवश्यकता अनुभव की गयी है, वहाँ उनको स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है, आवश्यकतानुसार टिप्पणियाँ लगा दी गई हैं।
छन्द – अथर्ववेद में छन्दों की विविधता भी अन्य वेदों की अपेक्षा बहुत अधिक है। अनेक छन्द ऐसे हैं ,जिनका उल्लेख छन्दः शास्त्र के उपलब्ध ग्रन्थों में नहीं मिलता। कुछ छन्द ऐसे हैं, जिन्हें कई छन्दों को मिलाकर रचा गया है। संभवत: ऋषि को अपनी अभिव्यक्ति के लिए ऐसा करना आवश्यक हो गया होगा। कुन्ताप सूक्त (काण्ड २० सू० १२९) में तो मन्त्रांश हैं और कहीं पर तो एक-एक शब्द के ही मंत्र हैं । उन्हें छन्दों की किसी स्थापित धारा में प्रायः नहीं लिया जा सकता, उनके अर्थों का बोध भी दुरूह है।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
संदर्भ ग्रन्थ : अथर्ववेद-संहिता परिचय वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा