03- अथर्ववेद परिचय : अथर्ववेदीय तीन संहिताएँ

अथर्ववेदीय कौशिक सूत्र के दारिल भाष्य में अथर्ववेद की तीन संहिताओं का उल्लेख पाया जाता है, जबकि अन्य तीनों वेदों की एक-एक संहिता ही उपलब्ध होती है, जिसका मुद्रण-प्रकाशन होता रहता है।
दारिल भाष्य में अथर्व की जिन तीन संहिताओं का उल्लेख है, उनके नाम हैं -(i) आर्षी-संहिता (ii) आचार्य संहिता और (i) विधि-प्रयोग संहिता।
आर्षी संहिता – ऋषियों के द्वारा परम्परागत प्राप्त मंत्रों के संकलन को ‘आर्षी संहिता’ कहा जाता है। आजकल काण्ड, सूक्त और मंत्रों के विभाजन वाला जो अथर्ववेद उपलब्ध है, जिसे शौनकीय संहिता भी कहा जाता है, ऋषि संहिता या आर्षी – संहिता ही है।
आचार्य संहिता – दारिल भाष्य में इस संहिता के संदर्भ में उल्लेख है कि उपनयन संस्कार के बाद आचार्य अपने शिष्य को जिस रूप में अध्ययन कराता है, वह आचार्य संहिता कहलाती है।
विधि प्रयोग संहिता – जब मंत्रों का प्रयोग किसी अनुष्ठेय कर्म के लिए किया जाता है, तो एक ही मंत्र को कई पदों में विभक्त करके अनुष्ठेय मन्त्र का निर्माण कर लिया जाता है, तब ऐसे मन्त्रों के संकलन को विधि-प्रयोग संहिता कहते हैं । विधि प्रयोग संहिता का यह प्रथम प्रकार है। इसी भाँति इसके चार प्रकार और होते हैं। द्वितीय प्रकार में नये शब्द मन्त्रों में जोड़े जाते हैं। तृतीय प्रकार में किसी विशिष्ट मन्त्र का आवर्तन उस सूक्त के प्रतिमंत्र के साथ किया जाता है । इस प्रकार सूक्त के मंत्रों की संख्या द्विगुणित हो जाती है। चतुर्थ प्रकार में किसी सूक्त में आए हुए मंत्रों के क्रम को परिवर्तित कर दिया जाता है। पंचम प्रकार में किसी मंत्र के अर्ध भाग को ही सम्पूर्ण मन्त्र मानकार प्रयोग किया जाता है ।
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि आर्षी-संहिता मूल संहिता है । आचार्य संहिता उसका संक्षिप्तीकरण रूप है और विधि-प्रयोग संहिता उसका विस्तृतीकरण रूप।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
संदर्भ ग्रन्थ : अथर्ववेद-संहिता परिचय वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा