अथर्ववेद-संहिता – 1:02 – रोग-उपशमन सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[२- रोग-उपशमन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – चन्द्रमा और पर्जन्य। छन्द – अनुष्टुप् , ३ त्रिपदा विराट् गायत्री।]
इस सूक्त के देवता पर्जन्य हैं। पर्जन्य का सामान्य अर्थ ‘वर्षति-सिञ्चति’ के आधार पर वर्षा किया गया है किन्तु उसे स्थूल वर्षा तक सीमित नहीं रखा जा सकता। ‘पृषु-सेचने’ (शब्द कल्पद्रुम) के अनुसार वह पोषणकर्ता भी है। निरुक्त में पर्जन्य “परः प्रकृष्टो जेता जनयिता वा” (परमशक्ति सम्पन्न जयशील या उत्पन्नकर्ता) कहा गया है। अस्तु, अनन्त आकाश के विभिन्न स्रोतों से बरसने वाले पोषक एवं उत्पादक स्थूल एवं सूक्ष्म प्रवाहों को पर्जन्य मानना युक्ति संगत है। वर्तमान विज्ञान भी यह मानता है कि सूक्ष्म कणों (सब पार्टिकल्स) के रूप में कुछ उदासीन (इनर्ट) तथा कुछ उत्पादक प्रकृति (जेनेटिक कैरेक्टर) वाले कण प्रवाहित होते रहते हैं। ऐसे प्रवाहों को पर्जन्य मानकर चलने से वेदार्थ का मर्म समझने में सुविधा रहेगी।
इस सूक्त में ऋषि ने धनुष से छुटने वाले विजयशील शर(बाण) के उदाहरण से जीवनतत्त्व के गूढ़ रहस्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। अनेकार्थी पदों-मंत्रों के भाव प्रकट करते हुए मंत्रार्थ एवं टिप्पणी करने का प्रयास किया गया है –
*५. विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम्। विद्मो ष्वस्य मातरं पृथिवी भूरिवपसम्॥१॥*
अनेक प्रकार से (चराचर धारक एवं पोषक पर्जन्य को हम इस ‘शर’ के पिता के रूप में जानते हैं। अनेक प्रकार के स्वरूप देने वाली पृथ्वी को भी हम भली प्रकार जानते हैं ॥१॥
[यहाँ ‘शर’ का अर्थ सरकण्डा तदर्थ बाण के रूप में सहज ग्राह्य है; किन्तु पृथ्वी से जो अंकुर निकलता है, उसे भी ‘शर’ कहते हैं। पृथ्वी पर जीवन के उद्भव का वह प्रथम प्रतीक है, उसी पर प्राणिमात्र का जीवन निर्भर करता है। बाण के रूप में या जीवन तत्त्व के रूप में उसकी उत्पत्ति, पिता पर्जन्य के सेचन से तथा माता पृथ्वी के गर्भ से होती है। यह जीवन तत्त्व ही समस्त बाधाओं एवं रोगादि को जीतने में, जीवन लक्ष्यों को बेधने में समर्थ होता है, इसीलिए उसकी उपमा शर से देना युक्ति संगत है।]
जीवन-संग्राम में विजय के लिए प्रयुक्त ‘शर’ (जीवन तत्त्व) किस धनुष से छोड़ा जाता है, उसका सुन्दर अलंकरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। उस धनुष की एक कोटि (छोर) माता पृथ्वी है तथा दूसरी (छोर) पिता पर्जन्य हैं। ‘ज्या’ (प्रत्यञ्चा) उन दोनों को खीचकर उनकी शक्ति संप्रेषित करती है। ‘ज्या’ का अर्थ जन्मदात्री भी होता है । आकाशस्थ पर्जन्य एवं पृथ्वी की शक्ति के संयोग से जीवन तत्त्व का संचरण करने वाली सर्जनशील प्रकृति इस धनुष की प्रत्यञ्चा-‘ज्या’ है। उसे लक्ष्य करके ऋषि कहते हैं-
६. ज्याके परि णो नमाश्मानं तन्वं कृधि ।वीडुर्वरीयोऽरातीरप द्वेषांस्या कृधि॥२॥*
हे ज्याके (जन्मदात्री) ! आप हमारे शरीरों को चट्टान की तरह सुदृढ़ता एवं शक्ति प्रदान करें । शत्रुओं (दोषों) को शक्तिहीन बनाकर हमसे दूर करें ॥२॥
७. वृक्षं यद्गावः परिषस्वजाना अनुस्फुरंशरमर्चन्त्यृभुम्। शरुमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र॥३॥
जिस प्रकार वृक्ष (विश्ववृक्ष या पूर्वोक्त धनुष) से संयुक्त गौएँ (ज्या, मंत्रवाणियाँ, इन्द्रियाँ) तेजस्वी ‘शर’ (जीवनतत्त्व) को स्फूर्ति प्रदान करती है, उसी प्रकार हे इन्द्र (इस प्रक्रिया के संगठक) ! आप इस तेजोयुक्त शर को आगे बढ़ाएँ-गतिशील बनाएँ ॥३॥
८. यथा द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम्।एवा.रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुज्ज इत्॥४॥
द्युलोक एवं पृथ्वी के मध्य स्थित तेज की भाँति यह मुञ्ज (मुक्तिदाता या शोधक जीवन-तत्त्व) सभी स्रावों (सृजित, प्रवाहित) रसों एवं रोगों के बीच प्रतिष्ठित रहे ॥४॥
[शरीर या प्रकृति के समस्त स्रावों को यह जीवनतत्त्व रोगों की ओर न जाने दे। रोगों के शमन में उसका उपयोग करे।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य