अथर्ववेद-संहिता – 1:07 – यातुधाननाशन सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[७- यातुधाननाशन सूक्त]
[ऋषि – चातन। देवता – अग्नि, ३ अग्नीन्द्र। छन्द – अनुष्टुप् ,५ त्रिष्टुप् ।]
३०. स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमीदिनम्।
त्वं हि देव वन्दितो हन्ता दस्योर्बभूविथ॥१॥
हे अग्निदेव ! हम आपकी वन्दना करते हैं। दुष्टता को बढ़ाने वाले शत्रुओं को, आप अपने प्रभाव से पास बुलाएँ। हमारे द्वारा वन्दित आप उनकी बुराइयों को नष्ट कर दें ॥ १॥
३१. आज्यस्य परमेष्ठिञ्जातवेदस्तनूवशिन्।
अग्ने तौलस्य प्राशान यातुधानान् वि लापय॥२॥
उच्च पद पर आसीन, ज्ञान के पुञ्ज, जठराग्नि के रूप में शरीर का सन्तुलन बनाने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारे द्वारा स्रुवापात्र से तौली हुई (प्रदत्त) आज्याहुति को ग्रहण करें। हमारे स्नेह से प्रसन्न होकर आप दुष्ट-दुराचारियों को विलाप कराएँ अर्थात् उनका विनाश करें॥२॥
३२. वि लपन्तु यातुधाना अत्रिणो ये किमीदिनः।
अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम्॥३॥
दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले समाज के शत्रुओं को अपना विनाश देखकर रुदन करने दें। हे अग्निदेव ! आप इन्द्र के साथ हमारे हविष्य को प्राप्त करें। हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करें।॥३॥
३३. अग्निः पूर्व आ रभतां प्रेन्द्रो नुदतु बाहुमान्।
ब्रवीतु सर्वो यातुमानयमस्मीत्येत्य॥४॥
पहले अग्निदेव (असुर विनाशन का कृत्य) प्रारम्भ करें, बलशाली इन्द्र प्रेरणा प्रदान करें। इन दोनों के प्रभाव से असुर स्वयं ही अपनी उपस्थिति स्वीकार करे (प्रायश्चित्त के लिए तैयार हो जाएँ)॥४॥
३४. पश्याम ते वीर्यं जातवेदः प्र णो ब्रूहि यातुधानान् नृचक्षः।
त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आ यन्तु प्रबुवाणा उपेदम्॥५॥
हे ज्ञान स्वरूप अग्निदेव! आपका प्रकाशरूपी पराक्रम हम देखें। आप पथभ्रष्टों के मार्गदर्शक हैं, अपने प्रभाव से दुष्टों को (हमारे शत्रुओं को) सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। आपकी आज्ञा से तप्त असुरता प्रायश्चित्त के लिए अपना परिचय देते हुए पास आए ॥५॥
३५. आ रभस्व जातवेदोऽस्माकार्थाय जज्ञिषे।
दूतो नो अग्ने भूत्वा यातुधानान् वि लापय ॥६॥
हे जातवेदः ! आप (शुभ यज्ञीय कर्मों का) प्रारम्भ करें। हे अग्निदेव ! आप हमारे प्रतिनिधि बनकर दुष्टजनों को अपने किये गये दुष्कर्मों पर रुलाएँ ॥६॥
३६. त्वमग्ने यातुधानानुपबद्धा इहा वह।
अथैषामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ॥७॥
हे मार्गदर्शक अग्निदेव ! आप दुराचारियों को यहाँ आने के लिए बाध्य करें और इन्द्रदेव वज्र से उनके सिरों का उच्छेदन कर ॥७॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य