अथर्ववेद-संहिता – 1:09 – विजयप्रार्थना सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[९- विजयप्रार्थना सूक्त]
[ऋषि – अथर्वा। देवता – वसुगण, इन्द्र, पूषा, वरुण, मित्र, अग्नि, आदित्यगण, विश्वेदेवा, २ देवगण, सूर्य,अग्नि, हिरण्य, ३-४ अग्नि (जातवेदा) । छन्द – त्रिष्टुप् ।]
४१. अस्मिन् वसु वसवो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणो मित्रो अग्निः।
इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तरस्मिज्योतिषि धारयन्तु॥१॥
वैभव की कामना करने वाले इस पुरुष को आठों वसु देवता, इन्द्र, पूषा, वरुण, मित्र, अग्नि आदि देवता धारण कर अपना अनुग्रह प्रदान करें। आदित्य और अन्य सभी देवता इसको तेजस्विता प्रदान करें॥१॥
४२. अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम्।
सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम्॥२॥
हे देवताओ! सूर्य की तेजस्विता, अग्नि की प्रखरता, चन्द्र की शीतलता एवं स्वर्ण की आभा मनुष्य के जीवन को ऊँचा उठाए। अपने संयम से इन शक्तियों को बढ़ाता हुआ वह (मनुष्य) शत्रुओं (आसुरी वृत्तियों) का विनाश करे। इस प्रकार वह जीवन की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करे ॥२॥
४३. येनेन्द्राय समभरः पयांस्युत्तमेन ब्रह्मणा जातवेदः।
तेन त्वमग्न इह वर्धयेमं सजातानां श्रैष्ठ्य आ धेह्येनम्॥३॥
हे अग्निदेव! जिस श्रेष्ठ ज्ञान के बल पर इन्द्र आदि देवता सम्पूर्ण रसों (सुखों) का उपभोग करते हैं, उसी दिव्य ज्ञान से मनुष्य के जीवन को प्रकाशित करते हए आप ऊँचा उठाएँ, वह मनुष्य देवतुल्य श्रेष्ठ जीवन जिए॥३॥
४४. ऐषां यज्ञमुत वचों ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने।
सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम्॥४॥
हे अग्निदेव! मैं इस (साधक) के यज्ञ, तेज, ऐश्वर्य एवं चित्त को स्वीकार करता हूँ । स्पर्धाशील शत्रु हमसे नीचे ही रहें। हे देव! आप इस साधक को श्रेष्ठ सुख-शान्ति प्रदान करें ॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य