अथर्ववेद-संहिता – 1:11 – नारीसुखप्रसूति सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[११- नारीसुखप्रसूति सूक्त ]
[ऋषि – अथर्वा । देवता – पृषा, अर्यमा, वेधा, दिक, देवगण। छन्द – पंक्ति, २ अनुष्टुप, ३ चतुष्पदा उष्णिक्गर्भा ककुम्मती अनुष्टुप , ४-६ पथ्यापंक्ति।]
४९. वषट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूतावर्यमा होता कृणोतु वेधाः।
सिस्रतां नार्यृतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा उ॥१॥
हे अखिल विश्व के पोषक, श्रेष्ठ जनों के हितैषी पृषा देवता! हम अपनी हवि समर्पित करते हैं। आप इस प्रसूता की सहायता करे। यह सावधानीपूर्वक अपने अंगों को प्रसव के लिए तैयार करे-ढीला करे॥१॥
५०. चतस्रो दिवः प्रदिशश्चतस्रो भूम्या उत। देवा गर्भं समैरयन् तं व्यूर्णवन्तु सूतवे॥२॥
धुलोक एवं भूमि को चारों दिशाएँ घेरे हैं । दिव्य पंच भूतों ने इस गर्भ को घेरा- (धारण किया) हुआ है, वे ही इस आवरण से मुक्त करें-बाहर करें॥२॥
५१. सूषा व्यूर्णोतु वि योनि हापयामसि। श्रथया सूषणे त्वमव त्वं बिष्कले सृज॥३॥
हे प्रसवशील माता अथवा प्रसव सहायक देव! आप गर्भ को मुक्त करें। गर्भ मार्ग को हम फैलाते हैं, अंगों को ढीला करें और गर्भ को नीचे की ओर प्रेरित करें ॥३॥
५२. नेव मांसे न पीवसि नेव मज्जस्वाहतम्।
अवैतु पृश्नि शेवलं शुने जराय्वत्तवेऽव जरायु पद्यताम्॥४॥
गर्भस्थ शिशु को आवेष्टित करने वाले (समेट कर रखने वाली थैली) ‘जरायु’ प्रसूता के लिये मांस, मज्जा या चर्बी की भाँति उपयोगी नहीं, अपितु अन्दर रह जाने पर गम्भीर दुष्परिणाम प्रस्तुत करने वाली सिद्ध होती है। सेवार (जल की घास) की जैसी नरम ‘जेरी’ पूर्णरूपेण बाहर आकर कुत्तों का आहार बने॥४॥
५३. वि ते भिनद्मि मेहनं वि योनि वि गवीनिके।*
*वि मातरं च पुत्रं च वि कुमारं जरायुणाव जरायु पद्यताम्॥५॥
हे प्रसूता! निर्विघ्न प्रसव के लिए गर्भमार्ग, योनि एवं नाड़ियों को विशेष प्रकार से खोलता हूँ। माँ व बालक को नाल से अलग करता हूँ। जेरी से शिशु को अलग करता हूँ। जेरी पूर्णरूपेण पृथ्वी पर गिर जाए॥५॥
५४. यथा वातो यथा मनो यथा पतन्ति पक्षिणः।
एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुणा पताव जरायु पद्यताम्॥६॥
जिस प्रकार वायु वेगपूर्वक प्रवाहित होती है। पक्षी जिस वेग से आकाश में उड़ते हैं एवं मन जिस तीव्रगति से विषयों में लिप्त होता है, उसी प्रकार दसवे माह गर्भस्थ शिशु जेरी के साथ गर्भ से मुक्त होकर बाहर आए॥६॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य