अथर्ववेद-संहिता – 1:15 – पुष्टिकर्म सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[१५- पुष्टिकर्म सूक्त]
[ऋषि -अथर्वा। देवता – सिन्धुसमूह (वाता, पतत्रिण पक्षी)। छन्द – अनुष्टुप्, १ भुरिक् बृहती, २ पथ्या पंक्ति।]
६७. सं सं स्रवन्तु सिन्धवः सं वाताः सं पतत्रिणः।
इमं यज्ञं प्रदिवो मे जुषन्तां संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥१॥
नदियाँ और वायु भली-भाँति संयुक्त होकर प्रवाहित होती रहें तथा पक्षीगण भली-भाँति संयुक्त होकर उड़ते रहे । देवगण हमारे यज्ञ को ग्रहण करें; क्योंकि हम हविष्यों को संगठित-एकीकृत करके आहुतियाँ दे रहे हैं ॥१॥
६८. इहैव हवमा यात म इह संस्रावणा उतेमं वर्धयता गिरः।
इहैतु सर्वो यः पशुरस्मिन् तिष्ठतु या रयिः॥२॥
हे संगठित करने वाले देवताओ ! आप यहाँ हमारे इस यज्ञ में पधारें और इस संगठन का संवर्द्धन करें। प्रार्थनाओं को ग्रहण करने पर आप इस हवि प्रदाता यजमान को प्रजा, पशु आदि सम्पत्ति से सम्पन्न करें ॥२॥
६९. ये नदीनां संस्रवन्त्युत्सासः सदमक्षिताः।
तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्धनं सं स्रावयामसि॥३॥
सरिताओं के जो अक्षय स्रोत संघबद्ध होकर प्रवाहित हो रहे हैं, उन सब स्रोतों द्वारा हम पशु आदि धन-सम्पत्तियाँ प्राप्त करते हैं ॥३॥
७०. ये सर्पिषः संस्रवन्ति क्षीरस्य चोदकस्य च।
तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्धनं सं स्रावयामसि॥४॥
जो घृत, दुग्ध तथा जल की धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं, उन समस्त धाराओं द्वारा हम धन-सम्पत्तियाँ प्राप्त करते हैं ॥४॥
[प्रकृति चक्र द्वारा उपलब्ध वस्तुओं को सुनियोजित करके ही मनुष्य ने सारी सम्पत्तियाँ उपलब्ध की हैं।]
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य