अथर्ववेद-संहिता – 1:19 – शत्रुनिवारण सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[१९- शत्रुनिवारण सूक्त ]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – ईश्वर (१ इन्द्र, २ मनुष्यों के बाण, ३ रुद्र, ४ विश्वेदेवा)। छन्द – अनुष्टुप, २ पुरस्ताद्बृहती, ३ पथ्या पंक्ति।]
८३. मा नो विदन् विव्याधिनो मो अभिव्याधिनो विदन्।
आराच्छरव्या अस्मद्विषूचीरिन्द्र पातय॥१॥
हथियारों द्वारा अत्यधिक घायल करने वाले रिपु हमारे समीप तक न पहुँच पाएँ तथा चारों तरफ से संहार करने वाले रिपु भी हमारे पास न पहुँच पाएँ। हे परमेश्वर इन्द्र ! सब तरफ फैल जाने वाले बाणों को आप हमसे दूर गिराएँ ॥१॥
८४. विष्वञ्चो अस्मच्छरवः पतन्तु ये अस्ता ये चास्याः।
दैवीर्मनुष्येषवो ममामित्रान् वि विध्यत॥२॥
चारों तरफ फैले हए बाण जो चलाए जा चुके हैं तथा जो चलाए जाने वाले हैं, वे सब हमारे स्थान से दूर गिरें। हे मनुष्यों के द्वारा संचालित तथा दैवी बाणो! आप हमारे रिपुओं को विदीर्ण कर डालें॥२॥
८५. यो नः स्वो यो अरणः सजात उत निष्ट्यो यो अस्माँ अभिदासति।
रुद्रः शरव्य यैतान् ममामित्रान् वि विध्यतु॥३॥
जो हमारे स्वजन हों या दूसरे अन्य लोग हों अथवा सजातीय हों या दूसरी जाति वाले हीन लोग हों; यदि वे हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें दास बनाने का प्रयत्न करें, तो उन रिपुओं को रुद्रदेव अपने बाणों से विदीर्ण करें॥३॥
८६. यः सपत्नो योऽसपत्नो यश्च द्विषञ्छपाति नः।
देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम्॥४॥
जो हमारे प्रकट तथा गुप्त रिपु विद्वेष भाव से हमारा संहार करने का प्रयत्न करते हैं या हमें अभिशापित करते हैं, उन रिपुओं को समस्त देवगण विनष्ट करें। ब्रह्मज्ञान रूपी कवच हमारी सुरक्षा करे॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य