अथर्ववेद-संहिता – 1:20 – शत्रुनिवारण सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[२०- शत्रुनिवारण सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – १ सोम, मरुद्गण, २ मित्रावरुण, ३ वरुण, ४ इन्द्र। छन्द – अनुष्टुप्, १ त्रिष्टुप्।]
८७. अदारसृद् भवतु देव सोमास्मिन् यज्ञे मरुतो मृडता नः।
मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद् वृजिना द्वेष्या या॥१॥
हे सोमदेव! परस्पर वैमनस्य उत्पन्न करने का कृत्य हमसे न हो। हे मरुतो ! हम जिस युद्ध का अनुष्ठान कर रहे हैं, आप उसमें हमें हर्षित करें। सम्मुख होकर बढ़ता हुआ शत्रु का ओजस् हमारे समीप न आ सके तथा अपकीर्ति भी हमें न प्राप्त हो। जो विद्वेषवर्द्धक कुटिल कृत्य हैं, वे भी हमारे समीप न आ सकें॥१॥
८८. यो अद्य सेन्यो वधोऽघायूनामुदीरते। युवं तं मित्रावरुणावस्मद् यावयतं परि॥२॥
हे मित्र और वरुणदेवो ! रिपुओं द्वारा संधान किए गए आयुधों को आप हमसे दूर रखें, जिससे वह हमें स्पर्श न कर सके। आज संग्राम में हिंसा की अभिलाषा से संधान किए गए रिपुओं के अस्त्रों को हमसे दूर रखने का उपाय करें ॥२॥..
८९. इतश्च यदमुतश्च यद् वधं वरुण यावय। वि महच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम्॥३॥
हे वरुणदेव ! समीप में खड़े हुए तथा दूर में स्थित रिपुओं के जो अस्त्र, संहार करने के उद्देश्य से हमारे पास आ रहे हैं, उन छोड़े गए अस्त्र-शस्त्रों को आप हमसे पृथक् करें। हे वरुणदेव! रिपुओं द्वारा अप्राप्त बृहत् सुखों को आप हमें प्रदान करें तथा उनके कठोर आयुधों को हमसे पृथक् करें॥३॥
९०. शास इत्था महाँ अस्यमित्रसाहो अस्तृतः। न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन॥४॥
हे शासक इन्द्रदेव ! आपकी शत्रु हनन की क्षमता महान् और अद्भुत है, आपके मित्र भी कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते और न कभी शत्रुओं से पराभूत होते हैं ॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य