November 28, 2023

अथर्ववेद-संहिता – 1:25 – ज्वर नाशन सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

[२५- ज्वर नाशन सूक्त]

[ ऋषि -भृग्वङ्गिरा। देवता -यक्ष्मनाशन अग्नि। छन्द -१ त्रिष्टुप् , २-३ विराट्गर्भात्रिष्टुप्, ४ पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप्।]

१०७. यदग्निरापो अदहत् प्रविश्य यत्राकृण्वन् धर्मधृतो नमांसि।
तत्र त आहुः परमं जनित्रं स नः संविद्वान् परि वृङ्ग्धि तक्मन्॥१॥

जहाँ पर धर्म का आचरण करने वाले सदाचारी मनुष्य नमन करते हैं, जहाँ प्रविष्ट होकर अग्निदेव,प्राण धारण करने वाले जल तत्त्व को जलाते हैं, वहीं पर आपका (ज्वर का) वास्तविक जन्म स्थान है, ऐसा आपके बारे में कहा जाता है। हे कष्टप्रदायक ज्वर ! यह सब जानकर आप हमें रोग मुक्त कर दें॥१॥

१०८. यद्यर्चिर्यदि वासि शोचिः शकल्येषि यदि वा ते जनित्रम्।
ह्रूडुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृङ्ग्धि तक्मन्॥२॥

हे जीवन को कष्टमय करने वाले ज्वर! यदि आप दाहकता के गुण से सम्पन्न है तथा शरीर को संताप देने वाले हैं, यदि आपका जन्म लकड़ी के टुकड़ों की कामना करने वाले अग्निदेव से हुआ है, तो आप ‘हूई’ नाम वाले हैं। हे पीलापन उत्पन्न करने वाले ज्वर ! आप अपने कारण अग्निदेव को जानते हुए हमें मुक्त कर दें ॥२॥

[‘ह्रूडु’ का अर्थ गति (नाड़ी गति) या कम्पन बढ़ाने वाला अथवा चिन्ता उत्पन्न करने वाला माना जाता है।]

१०९. यदि शोको यदि वाभिशोको यदि वा राज्ञो वरुणास्यासि पुत्रः।
ह्रूडुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृङ्ग्धि तक्मन्॥३॥

हे जीवन को कष्टमय बनाने वाले ज्वर ! यदि आप शरीर में कष्ट देने वाले हैं अथवा सब जगह पीड़ा उत्पन्न करने वाले हैं अथवा दुराचारियों को दण्डित करने वाले वरुणदेव के पुत्र हैं, तो भी आपका नाम ‘ह्रूडु’ है। आप अपने कारण अग्निदेव को जानकर हम सबको मुक्त कर दें॥३॥

११०. नमः शीताय तक्मने नमो रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येद्युरुभयद्युरभ्येति तृतीयकाय नमो अस्तु तक्मने॥४॥

ठंडक को पैदा करने वाले शीत ज्वर के लिए हमारा नमन है और रूखे ताप को उत्पन्न करने वाले ज्वर को हमारा नमन है। एक दिन का अन्तर देकर आने वाले, दूसरे दिन आने वाले तथा तीसरे दिन आने वाले शीत ज्वर को हमारा नमन है॥४॥

[शीत-ठंड लगकर आने वाले एवं ताप से सुलाने वाले मलेरिया जैसे ज्वर का उल्लेख यहाँ है। यह ज्वर नियमित होने के साथ ही अंतर देकर आने वाले इकतरा-तिजारी आदि रूपों में भी होते हैं। नमन का सीधा अर्थ-दूर से नमस्कार करना-बचाव करना (प्रिवेन्शन) लिया जाता है। ‘संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ’ नामक कोष के अनुसार नमस् के अर्थ नमस्कार, त्याग वन आदि भी हैं। इन ज्वरों के त्याग या उन पर (ओषधि या मंत्र शक्ति से) वज्र प्रहार करने का भाव भी निकलता है।]

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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