अथर्ववेद-संहिता – 1:26 – शर्म (सुख) प्राप्ति सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[२६- शर्म (सुख) प्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – १ देवा, २ इन्द्र, भग, सविता, ३-४ मरुद्गण। छन्द – गायत्री, २ एकावसाना त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्, ४ एकावसाना पादनिचृत् गायत्री।]
इस सूक्त के देवता रूप में इन्द्राणी वर्णित हैं। इन्द्र शब्द राजा के लिए प्रयुक्त होने से इन्द्राणी का अर्थ रानी अथवा सेना लिया जाता है। इन्द्राणी को शची भी कहा गया है। ‘शची’ का अर्थ निघण्टु में वाणी, कर्म एवं प्रज्ञा दिया गया है। इस आधार पर शची को जीवात्मा की वाणी शक्ति, कर्म शक्ति एवं विचार शक्ति भी कहा जा सकता है। ये तीनों अलग-अलग एवं संयुक्त होकर भी शत्रुओं को पराभूत करने में समर्थ होती हैं। अस्तु, इन्द्राणी के अर्थ में रानी, राजा की सैन्य शक्ति तथा जीव-चेतना की उक्त शक्तियों को लिया जा सकता है-
१११. आरे३सावस्मदस्तु हेतिर्देवासो असत्। आरे अश्मा यमस्यथ॥१॥
हे देवो ! रिपुओं द्वारा फेंके गवे ये अस्त्र हमारे पास न आएँ तथा आपके द्वारा फेंके गये (अभिमंत्रित) पाषाण भी हमारे पास न आएँ॥१॥
११२. सखासावस्मभ्यमस्तु राति: सखेन्द्रो भगः सविता चित्रराधाः॥२॥
दान देने वाले, ऐश्वर्य – सम्पन्न सवितादेव तथा विचित्र धन से सम्पन्न इन्द्रदेव तथा भगदेव हमारे सखा हो॥२॥
११३. यूयं नः प्रवतो नपान्मरुतः सूर्यत्वचसः। शर्म यच्छाथ सप्रथाः॥३॥
अपने आप की सुरक्षा करने वाले, न गिराने वाले हे सूर्य की तरह तेजयुक्त मरुतो ! आप सब हमारे निमित्त प्रचुर सुख प्रदान करें॥३॥
११४. सुषूदत मृडत मृडया नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि॥४॥
इन्द्रादि देवता हमें आश्रय प्रदान करें तथा हमें हर्षित करें। वे हमारे शरीरों को आरोग्य प्रदान करें तथा हमारे बच्चों को आनन्दित करें ॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य