अथर्ववेद-संहिता – 1:27 – स्वस्त्ययन सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

[२७- स्वस्त्ययन सूक्त]

[ ऋषि – अथर्वा। देवता – चन्द्रमा और इन्द्राणी। छन्द – अनुष्टुप्, १ पथ्या पंक्ति।]

११५ अमूः पारे पृदाक्यस्त्रिषप्ता निर्जरायवः।
तासां जरायुभिर्वयमक्ष्या३वपि व्ययामस्यघायोः परिपन्थिनः॥१॥

जरायु निकलकर पार हुई ये त्रिसप्त (तीन और सात) सर्पिणियाँ (गतिशील सेनाएँ या शक्ति धाराएँ) हैं। उनके जरायु (केंचुल या आवरण) से हम पापियों की आँखें ढंक दें॥१॥

११६. विषूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभ्रती।विष्वक् पुनर्भुवा मनोऽसमृद्धा अघायवः॥२॥

रिपुओं का विनाश करने में सक्षम पिनाक (शिव धनु) की तरह शस्त्रों को धारण करके रिपुओं को काटने वाली (हमारी वीर सेनाएँ या शक्तियाँ) चारों तरफ से आगे बढ़ें, जिससे पुन: एकत्रित हुईं रिपु सेनाओं के मन तितर-बितर हो जाएँ और उसके शासक हमेशा के लिए निर्धन हो जाएँ॥२॥

११७. न बहवः समशकन् नार्भका अभि दाधृषुः।
वेणोरद्गा इवाभितोऽसमृद्धा अघायवः॥३॥

बृहत् शत्रु भी हमें विजित नहीं कर सकते और कम शत्रु हमारे सामने ठहर नहीं सकते। जिस प्रकार बाँस के अंकुर अकेले तथा कमजोर होते हैं। उसी प्रकार पापी मनुष्य धन विहीन हो जाएँ॥३॥

११८. प्रेतं पादौ प्रस्फुरतं वहतं पृणतो गृहान्।
इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुषिता पुरः॥४॥

हे दोनों पैरो! आप द्रुतगति से गमन करके आगे बढ़ें तथा वांछित फल देने वाले मनुष्य के घर तक हमें पहुँचाएँ । किसी के द्वारा विजित न की हुईं, न लूटी हुई अभिमानी – (इन्द्राणी) सबके आगे-आगे चलें ॥४॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!