अथर्ववेद-संहिता – 1:28 – रक्षोघ्न सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[२८- रक्षोघ्न सूक्त]
[ ऋषि – चातन। देवता – १-२ अग्नि, ३-४ यातुधानी। छन्द – अनुष्टुप. ३ विराट् पथ्याबृहती, ४ पथ्या पंक्ति।]
११९. उप प्रागाद् देवो अग्नी रक्षोहामीवचातनः।
दहन्नप द्वयाविनो यातुधानान् किमीदिनः॥१॥
रोगों को विनष्ट करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले अग्निदेव शंकालुओं, लुटेरों तथा दोमुहे कपटियों को भस्मीभूत करते हुए इस उद्विग्न मनुष्य के समीप पहुँचते हैं॥१॥
१२०. प्रति दह यातुधानान् प्रति देव किमीदिनः।
प्रतीची: कृष्णवर्तने सं दह यातुधान्यः॥२॥
हे अग्निदेव ! आप लुटेरों तथा सदैव शंकालुओं को भस्मसात करें। हे काले मार्ग वाले अग्निदेव ! जीवों के प्रतिकूल कार्य करने वाली लुटेरी स्त्रियों को भी आप भस्मसात् करें॥२॥
१२१. या शशाप शपनेन याचं मूरमादधे।
या रसस्य हरणाय जातमारेभे तोकमत्तु सा॥३॥
जो राक्षसियाँ शाप से शापित करती हैं और जो समस्त पापों का मूल हिंसा रूपी पाप करती हैं तथा जो खून रूपी रसपान के लिए जन्मे हुए पुत्र का भक्षण करना प्रारम्भ करती हैं, वे राक्षसियाँ अपने पुत्र का तथा हमारे रिपुओं की सन्तानों का भक्षण करें॥३॥
१२२. पुत्रमत्तु यातुधानीः स्वसारमुत नप्त्यम्।
अधा मिथो विकेश्यो३ विघ्नतां यातुधान्यो३ वि तृह्यन्तामराय्यः॥४॥
वे राक्षसियाँ अपने पुत्र, बहिन तथा पौत्र का भक्षण करें। वे बालों को खीचकर झगड़ती हुई मृत्यु को प्राप्त करें तथा दानभाव से विहीन घात करने वाली राक्षसियाँ परस्पर लड़कर मर जाएँ ॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य