अथर्ववेद-संहिता – 1:32 – महद्ब्रह्म सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

[३२- महद्ब्रह्म सूक्त]

[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – द्यावापृथिवी। छन्द – अनुष्टुप् , २ ककुम्मती अनुष्टुप्।]

१३७. इदं जनासो विदथ महद् ब्रह्म वदिष्यति।
न तत् पृथिव्यां नो दिवि येन प्राणन्ति वीरुधः॥१॥

हे जिज्ञासुओ! आप इस विषय में ज्ञान प्राप्त करें कि वह ब्रह्म धरती पर अथवा धुलोक में ही निवास नहीं करता, जिससे ओषधियाँ ‘प्राण’ प्राप्त करती हैं ॥१॥

१३८. अन्तरिक्ष आसां स्थाम श्रान्तसदामिव।
आस्थानमस्य भूतस्य विदुष्टद् वेधसो न वा॥२॥

इन ओषधियों का निवास स्थान अन्तरिक्ष में है। जिस प्रकार थके हुए मनुष्य विश्राम करते हैं, उसी प्रकार ये ओषधियाँ अन्तरिक्ष में निवास करती हैं। इस बने हुए स्थान को विधाता और मनु आदि जानते हैं अथवा नहीं?

१३९. यद् रोदसी रेजमाने भूमिश्च निरतक्षतम्।
आई तदद्य सर्वदा समुद्रस्येव स्रोत्याः॥३॥

हे द्यावा-पृथिवि ! आपने तथा धरती ने जो कुछ भी उत्पन्न किया है। वह सब उसी प्रकार हर समय नया रहता है, जिस प्रकार सरोवर से निकलने वाले जलस्रोत अक्षय रूप में निकलते रहते हैं॥३॥

१४०. विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधिश्रितम्।
दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चाकरं नमः॥४॥

यह अन्तरिक्ष इस जगत् का आवरण रूप है। धरती के आश्रय में रहने वाला यह विश्व आकाश से वृष्टि के लिए प्रार्थना करता है। उस धुलोक तथा समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न पृथ्वी को हम नमन करते हैं ॥४॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!