अथर्ववेद-संहिता – 1:33 – आप: सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[३३- आप: सूक्त]
[ ऋषि – शन्ताति। देवता – चन्द्रमा और आप:। छन्द – त्रिष्टुप्।]
१४१. हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः।
या अग्नि गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥१॥
जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर, शुद्धता प्रदान करने वाला है, जिससे सवितादेव और अग्निदेव उत्पन्न हुए हैं। जो श्रेष्ठ रंग वाला जल अग्निगर्भ है,वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे॥१॥
१४२. यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्।
या अग्नि गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥२॥
जिस जल में रहकर राजा वरुण सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं। जो सुन्दर वर्ण वाला जल अग्नि को गर्भ में धारण करता है, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो ॥२॥
१४३. यासां देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति।
या अग्नि गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥३॥
जिस जल के सारभूत तत्त्व का तथा सोमरस का इन्द्रदेव आदि देवता धुलोक में सेवन करते हैं। जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार से निवास करते हैं। वह अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे॥३॥
१४४. शिवेन मा चक्षुषा पश्यताप: शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं मे।
घृतश्चतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु॥४॥
हे जल के अधिष्ठाता देव ! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखें तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें। तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे॥४॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य