अथर्ववेद-संहिता – 1:34 – मधुविद्या सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥
[३४- मधुविद्या सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – मधुवनस्पति। छन्द – अनुष्टुप्।]
१४५. इयं वीरुन्मधुजाता मधुना त्वा खनामसि।
मधोरधि प्रजातासि सानो मधुमतस्कृधि॥१॥
सामने स्थित, चढ़ने वाली मधुक नामक लता मधुरता के साथ पैदा हुई है। हम इसे मधुरता के साथ खोदते हैं। हे वीरुत् ! आप स्वभाव से ही मधुरता संपन्न है। अत: आप हमें भी मधुरता प्रदान करें॥१॥
१४६. जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्।
ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि॥२॥
हमारी जिह्वा के अगले भाग में तथा जिह्वा के मूल भाग में मधुरता रहे। हे मधुलक लते ! आप हमारे शरीर, मन तथा कर्म में विद्यमान रहे॥२॥
१४७. मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसन्दृशः॥३॥
हे मधुक ! आपको ग्रहण करके हमारा निकट का गमन मधुर हो और दूर का जाना मधुर हो। हमारी वाणी भी मधुरता युक्त हो, जिससे हम सबके प्रेमास्पद बन जाएँ॥३॥
१४८. मधोरस्मि मधुतरो मदुघान्मधुमत्तरः।
मामित् किल त्वं वना: शाखां मधुमतीमिव॥४॥
हे मधुक लते ! आपकी समीपता को ग्रहण करके हम शहद से अधिक मीठे हो जाएँ तथा मधुर पदार्थ से भी ज्यादा मधुर हो जाएँ। आप हमारा ही सेवन करें। जिस प्रकार मधुर फलयुक्त शाखा से पक्षीगण प्रेम करते हैं, उसी प्रकार सब लोग हमसे प्रेम करें ॥४॥
१४९. परि त्वा परितत्नुनेक्षणागामविद्विषे।
यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः॥५॥
सब तरफ से घिरे हुए मीठे ईख के सदृश, एक दूसरे के प्रिय तथा मिठास युक्त रहने के निमित्त ही हे पत्नि! हम तुमको प्राप्त हुए हैं। हमारी कामना करने वाली रहो तथा हमें परित्याग करके तुम न जा सको, इसीलिए हम तुम्हारे समीप आए हैं ॥५॥
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य