अथर्ववेद संहिता – 2:25 – पृश्निपर्णी सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२५- पृश्निपर्णी सूक्त]
[ ऋषि– चातन। देवता – वनस्पति पृश्निपर्णी। छन्द – अनुष्टुप, ४ भुरिक् अनुष्टुप्।]
इस सूक्त में पृश्निपर्णी (वनौषधि) के प्रभाव का उल्लेख है। उस सन्दर्भ में सूक्त के मंत्रार्थ सहज ग्राह्य है, किन्तु ‘पृश्नि’ का अर्थ पृथ्वी भी होता है, तदनुसार पृश्निपर्णी का भाव बनता है- पृथ्वी का पालन करने वाली दिव्य शक्ति। सूक्त के देवता के रूप में वनस्पति का उल्लेख है। वास्तव मे पृथ्वी से उत्पन्न वनस्पतियो (हरियाली) से ही पृथ्वी के प्राणियों का पालन होता है। इस भाव से पृश्निपर्णी किसी एक ओषधि के स्थान पर ‘पालनकर्त्री वनस्पतिओं’ को भी कह सकते है। इस प्रकार मंत्रों का अध्ययन विभिन्न दृष्टियों से किया जा सकता है-
२९१. शं नो देवी पृश्निपर्ण्यशं निर्ऋत्या अकः।
उग्रा हि कण्वजम्भनी तामभक्षि सहस्वतीम्॥१॥
यह दमकनेवाली पृश्निपर्णी ओषधि हमे सुख प्रदान करे और हमारे रोगों को दूर करे। यह विकराल रोगों को समूल नष्ट करने वाली है। इसलिए हम उस शक्तिशाली ओषधि का सेवन करते हैं॥१॥
२९२. सहमानेयं प्रथमा पृश्निपर्ण्यजायत।
तयाहं दुर्णाम्नां शिरो वृश्चामि शकुनेरिव॥२॥
रोगों पर विजय पानेवाली ओषधियों में यह पृश्निपर्णी सबसे पहले उत्पन्न हुई। इसके द्वारा बुरे नामो वाले रोगों के सिर को हम उसी प्रकार कुचलते है, जिस प्रकार शकुनि (दुष्ट राक्षस) का सिर कुचलते हैं॥२॥
२९३. अरायमसृक्पावानं यश्च स्फातिं जिहीर्षति।
गर्भादं कण्वं नाशय पृश्निपर्णि सहस्व च॥३॥
हे पृश्निपर्णि! आप शरीर की वृद्धि को अवरुद्ध करने वाले रोगों को विनष्ट करे। हे पृश्निपर्णि! आप रक्त पीने वाले गथा गर्भ का भक्षण करने वाले रोग रूप रिपुओं को विनष्ट करें॥३॥
२९४. गिरिमेनाँ आ वेशय कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तांस्त्वं देवि पृश्निपर्ण्यग्निरिवानुदहन्निहि॥४॥
हे देवी पृश्निपर्णि! जीवनी-शक्ति को विनष्ट करने वाले दोषों तथा रोगों को आप पर्वत पर ले जाएँ और उनको दावाग्नि के समान भस्मसात् कर दें॥४॥
२९५. पराच एनान् प्रणुद कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तमांसि यत्र गच्छन्ति तत् क्रव्यादो अजीगमम्॥५॥
हे पृश्निपर्णि! जीवनी-शक्ति को विनष्ट करने वाले रोगों को आप उलटा मुख करके ढकेल दे। सूर्योदय होने पर भी जिस स्थान पर अन्धकार रहता है, उस स्थान पर शरीर की धातुओं का भक्षण करने वाले दुष्ट रोगों को (आपके माध्यम से) हम भेजते है हैं॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी