अथर्ववेद संहिता – 2:30 – कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[३०- कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त]
[ ऋषि – प्रजापति। देवता – १ मन. २ अश्विनीकुमार, ३-४ ओषधि, ५ दम्पती। छन्द – अनुष्टुप्, १ पथ्यापंक्ति, ३ भुरिक अनुष्टुप्।]
३२०. यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथायति।
एवा मध्नामि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः॥१॥
हे स्त्री ! जिस प्रकार भूमि पर विद्यमान तृण को वायु चक्कर कटाता है, उसी प्रकार हम आपके हृदय को मथते हैं। जिससे आप हमारी कामना करने वाली हो और हमे छोड़कर दूसरी जगह न जाएँ॥१॥
३२१. सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना संच वक्षथः।
सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समु व्रता॥२॥
हे अश्विनीकुमारो! हम जिस वस्तु की कामना करते हैं, आप उसको हमारे पास पहुँचाएँ। आप दोनों के भाग्य, चित्त तथा व्रत हमसे संयुक्त हो जाएँ ॥२॥
३२२. यत् सुपर्णा विवक्षवो अनमीवा विवक्षवः।
तत्र मे गच्छताद्धवं शल्य इव कुल्मलं यथा॥३॥
मनोहर पक्षी की आकर्षक बोली और नीरोग मनुष्य के प्रभावशाली वचन के समान हमारी पुकार बाण के सदृश अपने लक्ष्य पर पहुँचे॥३॥
३२३. यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्।कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गृभायौषधे॥४॥
जो अन्दर और बाहर से एक विचार वाली हैं-ऐसे दोषरहित अंगों वाली कन्याओं के पवित्र मन को हे ओषधे ! आप ग्रहण करें॥४॥
३२४, एयमगन् पतिकामा जनिकामोऽहमागमम्।
अश्वः कनिक्रदद् यथा भगेनाहं सहागमम्॥५॥
यह स्त्री पति की कामना करती हुई मेरे पास आई है और मैं उस स्त्री की अभिलाषा करते हुए उसके समीप पहुँचा हूँ। हिनहिनाते हुए अश्व के समान मैं ऐश्वर्य के साथ उसके समीप आया हूँ ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी