अथर्ववेद संहिता – 2:4 – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[४ – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त]

[ ऋषि – अथर्वा। देवता – चन्द्रमा अथवा जङ्गिड़। छन्द -अनुष्टुप, १ विराट् प्रस्तारपंक्ति।]

इस सूक्त के देवता चन्द्र और जंगिड़ (मणि) हैं। इसी सूक्त (मंत्र क्र.५) में उसे अरण्य-वन से लाया हुआ कहा गया है तथा अथर्व०१९.३४.९ में इसे वनस्पति कहा गया है। आचार्य सायण ने इसे वाराणसी क्षेत्र में पाया जाने वाला वृक्ष विशेष कहा है, आजकल इसके बारे में किसी को पता नहीं है। चन्द्रमा के साथ इसे देवता संज्ञा प्रदान करने से यह सोम प्रजाति की वनस्पति प्रतीत होती है। जंगिड़ मणि से उस ओषधि रस से तैयार मणि (गुटिका-गोली) का बोध होता है। इसी का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-

१७०. दीर्घायुत्वाय बृहते रणायारिष्यन्तो दक्षमाणाः सदैव।
मणि विष्कन्धदूषणं जङ्गिडं बिभृमो वयम्॥१॥

दीर्घायु प्राप्त करने के लिए तथा आरोग्य का प्रचुर आनन्द अनुभव करने के लिए हम अपने शरीर पर जंगिड़ मणि धारण करते हैं । यह जंगिड़ मणि रोगशामक है तथा दुर्बलता को दूर करके सामर्थ्य को बढ़ाने वाली है ॥१॥

१७१. जङ्गिडो जम्भाद् विशराद् विष्कन्धादभिशोचनात्।
मणिः सहस्रवीर्यः परि णः पातु विश्वतः॥२॥

यह जंगिड़ मणि सहस्रों बलों से सम्पन्न होकर जमुहाई बढ़ाने वाली, दुर्बलता पैदा करने वाली, देह को सुखाने वाली तथा अकारण आँखों में आँसू आने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करे॥२॥

१७२. अयं विष्कन्धं सहतेऽयं बाधते अत्रिणः।
अयं नो विश्वभेषजो जङ्गिड: पात्वंहसः॥३॥

यह जंगिड मणि सुखाने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करती है और भक्षण करने वाली कृत्या आदि का विनाश करती है। यह हमारे समस्त रोगों का निवारण करने वाली सम्पूर्ण ओषधिरूप है, यह पाप से हमारी सुरक्षा करे॥३॥

१७३. देवैर्दत्तेन मणिना जङ्गिडेन मयोभुवा।
विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे॥४॥

देवताओं द्वारा प्रदान किये गये, सुखदायक जंगिड़ मणि के द्वारा, हम सुखाने वाले रोगों तथा समस्त रोगकीटाणुओं को संघर्ष में दबा सकते हैं॥४॥

१७४. शणश्च मा जङ्गिडश्च विष्कन्धादभि रक्षताम्।
अरण्यादन्य आभृतः कृष्या अन्यो रसेभ्यः ॥५॥

सन (बाँधने के लिए सन से बने धागे अथवा सन का विशिष्ट योग) तथा जंगिड़ मणि विष्कंध रोग से हमारी रक्षा करें। इनमें से एक की आपूर्ति वन से तथा दूसरे की कृषि द्वारा उत्पादित रसों से की गई है॥५॥

१७५. कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषिः।
अथो सहस्वाञ्जङ्गिडः प्र ण आयूंषि तारिषत्॥६॥

यह जंगिड़ मणि कृत्या आदि से सुरक्षा करने वाली है तथा शत्रुरूप व्याधियों को दूर करने वाली है। यह शक्तिशाली जंगिड़मणि हमारे आयुष्य की वृद्धि करे ॥६॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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