अथर्ववेद संहिता – 2:5 – इन्द्रशौर्य सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[५- इन्द्रशौर्य सूक्त]
[ ऋषि – भृगु आथर्वण। देवता -इन्द्र। छन्द – त्रिष्टुप, १ निवृत् उपरिष्टात् बृहती, २ विराट् उपरिष्टात् बृहती,
३ विराट् पथ्या बृहती, ४ पुरोविराट् जगती।]
१७६. इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिभ्याम्।
पिबा सुतस्य मतेरिह मधोश्चकानश्चारुर्मदाय॥१॥
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप आनन्दित होकर आगे बढ़ें। आप अपने अश्वों के द्वारा इस यज्ञ में पधारें। परितुष्ट तथा आनन्दित होने के लिए विद्वान् पुरुषों द्वारा अभिषुत किए गए मधुर सोमरस का पान करें॥१॥
१७७. इन्द्र जठरं नव्यो न पृणस्व मधोर्दिवो न।
अस्य सुतस्य स्व१र्णोप त्वा मदाः सुवाचो अगुः॥२॥
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप प्रशंसनीय तथा हर्षवर्धक मधुर सोमरस के द्वारा उदरपूर्ति करें। इसके बाद अभिषुत सोमरस तथा स्तुतियों के माध्यम से आपको स्वर्ग की तरह आनन्द प्राप्त हो॥२॥
१७८. इन्द्रस्तुराषामित्रो वृत्रं यो जघान यतीर्न।
बिभेद वलं भृगुर्न ससहे शत्रून् मदे सोमस्य॥३॥
इन्द्रदेव समस्त प्राणियों के मित्र हैं तथा रिपुओं पर त्वरित गति से आक्रमण करने वाले हैं। उन्होंने वृत्र या अवरोधक मेघ का संहार किया था। भृगु ऋषि के समान उन्होंने अंगिराओं के यज्ञों की साधनभूत गौओं का अपहरण करने वाले बलासुर का संहार किया था, सोमपान से हर्षित होकर रिपुओं को पराजित किया था॥३॥
१७९. आ त्वा विशन्तु सुतास इन्द्र पृणस्व कुक्षी विवि शक्र धियेह्या नः।
श्रुधी हवं गिरो मे जुषस्वेन्द्र स्वयुग्भिर्मत्स्वेह महे रणाय॥४॥
हे शक्तिशाली इन्द्रदेव ! आपको अभिषुत सोमरस प्राप्त हो और आप उससे अपनी दोनों कुक्षियों को पूर्ण करें। हे इन्द्रदेव ! आप हमारे आवाहन को सुनकर, विवेकपूर्वक हमारे समीप पधारें तथा हमारे स्तुति – वचनों को स्वीकार करें और विराट् संग्राम के लिए अपने रक्षण साधनों के साथ हर्षपूर्वक तैयार रहें॥४॥
१८०. इन्द्रस्य नु प्रा वोचं वीर्याणि यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम्॥५॥
वज्रधारी इन्द्रदेव के पराक्रमपूर्ण कृत्यों का हम बखान करते हैं। उन्होंने वृत्र तथा मेघ का संहार किया था। उसके बाद उन्होंने वृत्र के द्वारा अवरुद्ध किये हुए जल को प्रवाहित किया तथा पर्वतों को तोड़कर नदियों के लिए रास्ता बनाया॥५॥
१८१. अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वयं ततक्ष।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः॥६॥
उन इन्द्रदेव ने वृत्र का संहार किया तथा मेघ को विदीर्ण किया। वृत्र के पिता त्वष्टा ने इन्द्रदेव के निमित्त अपने वज्र को तेज किया। उसके बाद गौओं के सदृश अधोमुख होकर वेग से बहने वाली नदियाँ समुद्र तक पहुँचीं ॥६॥
१८२. वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत् सुतस्य।
आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम्॥७॥
वृष के सदृश व्यवहार करने वाले इन्द्रदेव ने सोमरूप अन्न को प्रजापति से ग्रहण किया तथा सेन उच्च स्थानों में अभिषुत सोमरस का पान किया। उसके बल से बलिष्ठ होकर उन्होंने बाणरूप वज्र धारण किया तथा हिंसा करने वाले रिपुओं में प्रथम उत्पन्न हुए इस वीर (वृत्र) को विनष्ट किया ॥७ ।।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य