अथर्ववेद संहिता – 2:6 – सपत्नहाग्नि सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[६- सपत्नहाग्नि सूक्त]
[ ऋषि – शौनक। देवता – अग्नि। छन्द – त्रिष्टुप्, ४ चतुष्पदार्षी पङ्क्ति, ५ विराट् प्रस्तारपङ्क्ति।]
१८३. समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयो यानि सत्या।
सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्वा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः॥१॥
हे अग्निदेव! आपको माह, ऋतु, वर्ष, ऋषि तथा सत्य-आचरण समृद्ध करें। आप दैवी तेजस् से सम्पत्र होकर समस्त दिशाओं को आलोकित करें॥१॥
१८४. सं चेध्यस्वाग्ने प्र च वर्धयेममुच्च तिष्ठ महते सौभगाय।
मा ते रिषन्नुपसत्तारो अग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु मान्ये॥२॥
हे अग्निदेव ! आप भलीप्रकार प्रदीप्त होकर इस याजक की वृद्धि करें तथा इसे प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए उत्साहित रहें। हे अग्निदेव ! आपके साधक कभी विनष्ट न हों। आपके समीप रहने वाले विप्र कीर्ति-संपन्न हों तथा दूसरे अन्य लोग (जो यज्ञादि नहीं करते, वे) कीर्तिवान् न हो ॥२॥
१८५. त्वामग्ने वृणते ब्राह्मणा इमे शिवो अग्ने संवरणे भवा नः।
सपत्नहाग्ने अभिमातिजिद् भव स्वे गये जागृह्यप्रयुच्छन्॥३॥
हे अग्निदेव! ये ब्राह्मण याजक आपकी साधना करते हैं। हे अग्निदेव! आप हमारी भूलो से भी क्रोधित न हो। हे अग्निदेव ! आप हमारे रिपुओं तथा पापों को पराजित करके अपने घर में सावधान होकर जाग्रत रहे॥३॥
१८६. क्षत्रेणाग्ने स्वेन सं रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व।
सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह॥४॥
हे अग्निदेव ! आप क्षत्रिय बल से भली प्रकार संगत (युक्त) हो। हे अग्निदेव ! आप अपने मित्रों के साथ मित्रभाव से आचरण करें। हे अग्निदेव ! आप समान जन्म वाले विप्रों के बीच में आसीन होकर तथा राजाओं के मध्य में विशेष रूप से आवाहनीय होकर, इस यज्ञ में आलोकित हों॥४॥
१८७. अति निहो अति सृधोऽत्यचित्तीरति द्विषः।
विश्वा ह्यग्ने दुरिता तर त्वमथास्मभ्यं सहवीरं रयिं दाः॥५॥*
हे अग्निदेव ! आप हमारे विषय-विकारों को दूर करें, (जो हमें सूअर, कुते आदि की घिनौनी योनि में डालने वाले हैं।) आप हमारे शरीर को सुखाने वाली व्याधियो तथा पाप में प्रेरित करने वाली दुर्बुद्धियों को दूर करें। आप हमारे रिपुओं का विनाश करें और हमें पराक्रमी सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य