November 28, 2023

अथर्ववेद संहिता – 2:8 – क्षेत्रियरोगनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[८- क्षेत्रियरोगनाशन सूक्त ]

[ ऋषि – भृग्वगिरा। देवता – वनस्पति, यक्ष्मनाशन। छन्द -अनुष्टुप् ,३ पथ्यापङ्क्ति, ४ विराट अनुष्टुप्, ५ निवृत् पथ्यापंक्ति।]

इस सूक्त में क्षेत्रिय (वंशानुगत) रोग-निवारण के सूत्र कहे गये हैं। प्रथम मंत्र में उसके लिए उपयुक्त नक्षत्र योग का तथा तीसरे में वनौषधियों का उल्लेख है। मंत्र २, ४ एवं ५ सहयोगी तंत्र उपचार, पथ्यादि के संकेत प्रतीत होते हैं। तथ्यों तक पहुँचने के लिए शोध कार्य अपेक्षित है-

१९३. उदगातां भगवती विचूतौ नाम तारके। वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम्॥१॥

विचूत नामक प्रभावपूर्ण दोनों तारिकाएँ (अथवा उपयुक्त ओषधि एवं तारिकाएँ) उगी हैं। वे वंशानुगत रोग के अधम एवं उत्तम पाश को खोल दें ॥१॥

[कुछ आचार्यों ने भगवती को तारकों का विशेषण माना है, कुछ उसका अर्थ दिव्य ओषधि के रूप में करते हैं।]

१९४. अपेयं रात्र्युच्छत्वपोच्छन्त्वभिकृत्वरी:। वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु॥२॥

यह रात्रि चली जाए, हिंसक (रोगाणु) भी चले जाएँ। वंशानुगत रोग की ओषधि उस रोग से मुक्ति प्रदान करे॥२॥

[इस मंत्र से रोगमुक्ति का प्रयोग रात्रि के समापन काल अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में करने का आभास मिलता है।]

१९५. बभ्रोरर्जुनकाण्डस्य यवस्य ते पलाल्या तिलस्य तिलपिज्या।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु॥३॥

भूरे और सफेद रंग वाले अर्जुन की लकड़ी, जौ की बाल तथा तिल सहित तिल की मञ्जरी व्याधि को विनष्ट करे । आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वाली यह वनस्पति इस रोग से विमुक्त करे ॥३॥

[अर्जुन की छाल, जौ, तिल आदि का प्रयोग ओषधि अनुपान या पथ्यादि के रूप में करने का संकेत प्रतीत होता है।]

१९६. नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईषायुगेभ्यः । वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु॥४॥

रोग के शमन के लिए (ओषधि उत्पादन में उपयोगी) वृषभ युक्त हल तथा उसके काष्ठ युक्त अवयवों को नमन है। आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वाली ओषधि आपके क्षेत्रिय रोग को विनष्ट करे॥४॥

१९७. नमः सनिस्साक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यो नमः क्षेत्रस्य पतये।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु॥५॥

(ओषधि उत्पादन में सहयोगी) जल प्रवाहक अक्ष को नमन, संदेश पहुँचाने वाले को नमन, (उत्पादक) क्षेत्र के स्वामी को नमन। क्षेत्रिय रोग निवारक ओषधि इस रोग का निवारण करे ॥५॥

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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