अथर्ववेद संहिता – 2:9 – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[९- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – यक्ष्मनाशन, वनस्पति। छन्द – अनुष्टुप्, १ विराट् प्रस्तारपांक्ति।]
१९८. दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अधि यैनं जग्राह पर्वसु।
अथो एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय॥१॥
हे दशवृक्ष ! राक्षसी की तरह इसको (रोगी को) जकड़ने वाले गठिया रोग से आप मुक्त करें। हे वनौषधे! व्याधि के कारण (निष्क्रिय) इस व्यक्ति को पुन: जनसमाज में जाने योग्य बनाएँ॥१॥
१९९. आगादुदगादयं जीवानां व्रातमप्यगात्।
अभूदु पुत्राणां पिता नृणां च भगवत्तमः॥२॥
(हे वनस्पते !) आपकी कृपा से यह व्यक्ति जीवन पाकर जीवित मनुष्यों के समूह में पुन: आ जाए और अपने पुत्रों का पिता हो जाए तथा मनुष्यों के बीच में अत्यधिक सोभाग्यवान् बन जाए॥२॥
२००. अधीतीरध्यगादयमधि जीवपुरा अगन्। शतं ह्यस्य भिषजः सहस्रमुत वीरुधः॥३॥
व्याधि से मुक्त हुए व्यक्ति को विद्याओं का स्मरण हो जाए तथा मनुष्यों के निवास स्थान को फिर से जान जाए, क्योंकि इस रोग के सैकड़ों वैद्य हैं तथा हजारों ओषधियाँ हैं॥३॥
२०१.देवास्ते चीतिमविदन् ब्रह्माण उत वीरुधः। चीतिं ते विश्वे देवा अविदन् भम्यामधि॥४॥
हे ओषधे ! व्याधि की पीड़ा से रोगी को मुक्त करने तथा रोग का प्रतिरोध करने आदि आपके बल को समस्त देव जानते हैं । इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर आपके गुण-धर्म को देव, ब्राह्मण तथा चिकित्सक जानते हैं ॥४॥
२०२. यश्चकार स निष्करत् स एव सुभिषक्तमः।
स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद् भिषजा शुचिः ॥५॥
जो वैद्य अनवरत चिकित्सा का कार्य करते हैं, वही कुशलता प्राप्त करते हैं और वही श्रेष्ठ वैद्य बनते हैं। वही चिकित्सक अन्य चिकित्सकों से परामर्श करके आपके रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी