अथर्ववेद-संहिता – 2:2- भुवनपति सूक्त
अथर्ववेद-संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२- भुवनपति सूक्त]
[ ऋषि – मातृनामा। देवता – गन्धर्व, अप्सरा समूह। छन्द – त्रिष्टुप् , १ विराट् जगती, ४ विराट् गायत्री, ५ भुरिगनुष्टुप्।]
इस सूक्त के देवता गन्धर्व-अप्सरा हैं। गन्धर्व अर्थात् गांधर्वः – गा से भूमि, किरण, वाणी, इन्द्रिय का बोध होता है तथा धर्वः धारक, पोषक को कहते हैं। अप्सरा अर्थात् अप् सरस् – अप् सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न मूल क्रियाशील तत्त्व है, यह बात ऋग्वेद में भली-भाँति व्यक्त की जा चुकी है। अप् के आधार पर चलने वाली विभिन्न शक्तियाँ-प्राण की अनेक धाराएँ गन्धर्व पत्नियाँ कही गई हैं। इस आधार पर इस सूक्त के मंत्र अन्तरिक्ष-प्रकृति एवं काया में संचालित प्राण-प्रक्रिया पर घटित हो सकते हैं-
१५९. दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः।
तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम्॥१॥
जो दिव्य गन्धर्व, पृथ्वी आदि लोकों को धारण करने वाले एक मात्र स्वामी हैं, वे ही इस संसार में नमस्य हैं। हे परमात्मन् ! आपका निवास स्थान द्युलोक में हैं। हम आपको नमन करते हैं तथा उपासना द्वारा आपसे मिलते हैं ॥१॥
१६०. दिवि स्पृष्टो यजतः सूर्यत्वगवयाता हरसो दैव्यस्य।
मृडाद् गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यः सुशेवाः॥२॥
समस्त लोकों के एक मात्र अधिपति गंधर्व (पृथ्वी को धारण करने वाले) द्युलोक में विद्यमान रहने वाले, दैवी आपदाओं के निवारक तथा सूर्य के त्वचा (रक्षक-आवरण) रूप हैं। वे सबके द्वारा नमस्कार करने तथा प्रार्थना करने योग्य हैं। सबके सुखदाता वे हमें भी सुख प्रदान करें॥२॥
१६१. अनवद्याभिः समु जग्म आभिरप्सरास्वपि गन्धर्व आसीत्।
समुद्र आसां सदनं म आहुर्यतः सद्य आ च परा च यन्ति॥३॥
प्रशंसनीय रूप वाली अप्सराओं (किरणों या प्राण धाराओं) से गन्धर्वदेव संगत (युक्त) हो गए हैं। इन अप्सराओं का निवास स्थान अन्तरिक्ष है। हमें बतलाया गया है कि ये (अप्सराएँ) वहीं से आती (प्रकट होती) तथा वहीं चली जाती (विलीन हो जाती) हैं॥३॥
१६२. अभ्रिये दिद्युन्नक्षत्रिये या विश्वावसुं गन्धर्व सचध्वे।
ताभ्यो वो देवीर्नम इत् कृणोमि॥४॥
हे देवियो ! आप मेघों की विद्युत् अथवा नक्षत्रों के आलोक में संसार का पालन करने वाले गन्धर्वदेव से संयुक्त होती हैं, इसलिए हम आपको नमन करते हैं ॥४॥
[विद्युत् के प्रभाव से तथा नक्षत्रों (सूर्यादि) के प्रभाव से किरणे या प्राणधाराएँ-धारक तत्वों-प्राणियों के साथ संयुक्त होती हैं-यह तथ्य विज्ञान सम्मत है।]
१६३. याः क्लन्दास्तमिषीचयोऽक्षकामा मनोमुहः।
ताभ्यो गन्धर्वपत्नीभ्योऽप्सराभ्योऽकरं नमः॥५॥
प्रेरित करने वाली, ग्लानि को दूर करने वाली, आँखों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली तथा मन को अस्थिर करने वाली, जो गन्धर्व – पत्नी रूप अप्सराएँ हैं, हम उन्हें प्रणाम करते हैं ॥५॥
[प्राण की धाराएँ अथवा प्रकाश किरणें ही नेत्रादि को तुष्ट करती हैं, मन को तरंगित करने वाली भी वे ही हैं। मंत्र का भाव अप्सराओं के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों संदर्भों से सिद्ध होता है।]
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य