अथर्ववेद संहिता – Atharvaveda – 2:10 – पाशमोचन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१०- पाशमोचन सूक्त]
[ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता -१-८ द्यावापृथिवी, १ ब्रह्म, निति, २ आपोदेव, अग्नि (पूर्वपाद), सोम, ओषधि समूह (उत्तर पाद),३ पूर्वपाद का वात, उत्तर पाद की चारों दिशाएँ, ४-८ वातपत्नी, सूर्य, यक्ष्म, निर्ऋति। छन्द -सप्तपदा धृति, १ त्रिष्टुप्, २ सप्तपादष्टि, ६ सप्तपदा अत्यष्टि।]
२०३. क्षेत्रियात् त्वा निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्।
अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥१॥
(हे रोगिन् !) हम तुम्हें पैतृक रोग से, कष्टों से, द्रोह से, सम्बन्धियों के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करते हैं । हम तुम्हें ब्रह्मज्ञान से दोषरहित करते हैं और यह द्यावा-पृथिवी भी तुम्हारे लिए हितकारी हो॥१॥
२०४. शं ते अग्निः सहाद्भिरस्तु शं सोमः सहौषधीभिः।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् गृहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्।
अनागसं बह्मणा त्वा कणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥२॥
(हे रोगिन् !) समस्त जल के साथ अग्निदेव आपके लिए हितकारी हों तथा काम्पील (कबीला) आदि ओषधियों के साथ सोमरस भी आपके लिए हर्षकारी हो। हम आपको क्षेत्रिय रोग से, पीड़ा से, द्रोह से, बन्धुओं के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥२॥
२०५. शं ते वातो अन्तरिक्षे वयो धाच्छं ते भवन्तु प्रदिशश्चतस्रः। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥३॥
(हे रोगिन् !) अन्तरिक्ष में संचरण करने वाले वायुदेव आपके लिए सामर्थ्य एवं कल्याण प्रदान करें तथा चारों दिशाएँ आपके लिए हितकारी हो । हम आपको आनुवंशिक रोग, द्रोह, पीड़ा, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥३॥
२०६. इमा या देवी: प्रदिशश्चतस्रो वातपत्नीरभि सूर्यो विचष्टे। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥४॥
प्रकाशमयी चारों उपदिशाएँ वायुदेव की पत्नियाँ हैं, उनको आदित्यदेव चारों तरफ से देखते हैं। वे आपका कल्याण करे। हे रोगिन्! हम भी आपको आनुवंशिक रोगों, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥४॥
२०७. तासु त्वान्तर्जरस्या दधामि प्र यक्ष्म एतु निर्ऋति: पराचैः। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥५॥
(हे रोगिन् !) हम आपको व्याधिरहित करके वृद्धावस्था तक जीवित रहने के लिए उन (पूर्व आदि चारों) दिशाओं में स्थापित करते हैं। आपके समीप से क्षय रोग तथा सम्पूर्ण कष्ट अधोमुखी होकर दूर चले जाएँ। हे रोगिन् ! हम आपको आनुवंशिक रोग, पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, बह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥५॥
२०८. अमुक्था यक्ष्माद् दुरितादवद्याद् द्रुहः पाशाद् ग्राह्याश्चोदमुक्थाः। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥६॥
(हे रोगिन् !) क्षय रोग, रोग के पाप, निन्दा योग्य कर्म, विद्रोह के बन्धन तथा जकड़ने वाले वात रोग से आप छुटकारा पा रहे हैं, अर्थात् निश्चित रूप से मुक्त हो रहे हैं। हम भी आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥६॥
२०९. अहा अरातिमविदः स्योनमप्यभूर्भद्रे सुकृतस्य लोके। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥७॥
हे व्याधिग्रस्त मानव! आप रिपु समान बाधक रोग से मुक्त हों और अब आप हर्ष को प्राप्त करें। आप अपने पुण्य के परिणाम स्वरूप इस कल्याणमय लोक में पधारे हैं। हम भी आपको आनुवंशिक रोग की पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥७॥
२१०. सूर्यमृतं तमसो ग्राह्या अधि देवा मुञ्चन्तो असृजन्निरेणसः। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निर्ऋत्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्॥८॥
जिस प्रकार देवताओं ने सत्य रूप सूर्य को राहु नामक ग्रह से मुक्त किया था, उसी प्रकार हम आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह के पाप, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी