अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:11 – श्रेयः प्राप्ति सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[११- श्रेयः प्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि*( – शुक्र। देवता** – कृत्यादूषण। छन्द – त्रिपदा परोष्णिक, १ चतुष्पदा विराट् गायत्री, ४ पिपीलिक मध्या निचृत् गायत्री।]
इस सूक्त के देवता ‘कृत्या दूषण’ हैं। अनिष्टकारी कृत्या शक्ति के निवारणार्थ किसी समर्थ शक्ति की वन्दना इसमें की गयी है। कौशिक सूत्र में इस सूक्त के साथ ‘तिलकमणि’ को सिद्ध करके बाँधने का विधान दिया गया है। सायण आदि आचार्यों ने इसी आधार पर इस सूक्त को ‘तिलकमणि’ के प्रति कहा गया मानकर इसके अर्थ किए हैं। ऐसे अर्थ ठीक होते हुए भी एकांगी ही कहे जा सकते हैं। जीवन में प्रकट होने वाले विभिन्न कृत्या दोषों के निवारण के भाव से इसे ईश्वर अंश के रूप में स्थित जीव चेतना के प्रति कहा गया भी माना जा सकता है। प्रस्तुत भाषार्थ दोनों प्रयोजनों को समाहित करते हुए किया गया है। सुधी पाठक इसी भाव से इसे पढ़ने-समझने का प्रयास करें, ऐसी अपेक्षा है-
२११. दूष्या दूषिरसि हेत्या हेतिरसि मेन्या मेनिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम॥१॥
(हे तिलकमणे अथवा जीवसत्ता!) आप दोषों को भी दूषित (नष्ट) करने में समर्थ हैं। अनिष्टकारी हथियारों के लिए, आप विनाशक हथियार है आप वज्र के भी वज्र है, इसलिए आप श्रेयस्कर बनें, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समर्थ) सिद्ध हो॥१॥
२१२. स्रक्तयोऽसि प्रतिसरोऽसि प्रत्यभिचरणोऽसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम॥२॥
आप स्रक्त्य (तिलकवृक्ष से उत्पन्न या गतिशील) हैं,प्रतिसर (आघात को उलट देने में समर्थ) हैं, प्रत्याक्रमण करने में समर्थ हैं। अस्तु, आप श्रेयस्कर बनें और दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समर्थ) सिद्ध हों॥२॥
२१३. प्रति तमभि चर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम॥३॥
जो (शत्रु ) हमसे द्वेष करते (हमारे विकास में बाधक बनते) हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते (उनका निवारण चाहते) हैं, उनपर आप प्रत्याक्रमण करें। इस प्रकार आप श्रेयस्कर बनें, दोषों (शत्रुओं) से अधिक समर्थ बनें॥३॥
२१४. सूरिरसि वर्चोधा असि तनूपानोऽसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम॥४॥
आप (आवश्यकता के अनुरूप) ज्ञान-संपन्न हैं, तेजस्विता को धारण करने में समर्थ हैं तथा शरीर के रक्षक हैं, अस्तु, आप श्रेयस्कर सिद्ध हों, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे बढ़ें॥४॥
२१५. शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम॥५॥
आप शुक्र (उज्ज्वल अथवा वीर्यवान्) हैं, तेजस्वी हैं, आत्मसत्ता सम्पन्न हैं तथा ज्योति रूप (स्व प्रकाशित) हैं। आप श्रेयस्कर बनें तथा समान स्तर वालों से आगे बढ़ें॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी