अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:12 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१२- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – भरद्वाज। देवता -१ द्यावापृथिवी, अन्तरिक्ष, २ देवगण, ३ इन्द्र, ४ आदित्यगण, वसुगण, पितर अङ्गिरस, ५ पितर सौम्य, ६ मरुद्गण, ब्रह्मद्विट्,७ यमसादन (यमस्थान), ब्रह्म, ८ अग्नि। छन्द – त्रिष्टुप्, २ जगती,७-८ अनुष्टुप्।]
२१६. द्यावापृथिवी उर्व१न्तरिक्ष क्षेत्रस्य पत्न्युरुगायोऽद्भुतः।
उतान्तरिक्षमुरु वातगोपं त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने॥१॥
द्यावा-पृथिवी, विस्तृत अन्तरिक्ष, समस्त क्षेत्र की पत्नी (प्रकृति), अद्भुत सूर्यदेव, वायु को स्थान देने वाला विशाल अन्तरिक्ष आदि, हमारे तप्त (संतप्त) होने पर ये सब भी संतप्त (अनिष्ट निवारण के लिए उद्यत) हो ॥१॥
२१७. इदं देवाः शृणुत ये यज्ञिया स्थ भरद्वाजो मह्यमुक्थानि शंसति।
पाशे स बद्धो दुरिते नि युज्यतां यो अस्माकं मन इदं हिनस्ति॥२॥
हे यजनीय देवो ! आप हमारा निवेदन सुनें कि ऋषि भरद्वाज हमें उक्थ (मंत्रादि ) प्रदान कर रहे हैं । सत्कर्मों में निमग्न हमारे मन को जो रिपु दुः खी करते हैं, उन पापों को पाश में बाँधकर उचित स्थान पर नियोजित करें॥२॥
२१८. इदमिन्द्र शृणुहि सोमप यत् त्वा हृदा शोचता जोहवीमि।
वृश्चामि तं कुलिशेनेव वृक्षं यो अस्माकं मन इदं हिनस्ति॥३॥
हे इन्द्रदेव ! आप सोमरस पान द्वारा आनन्दित मन से हमारे कथन को सुनें। रिपुओं द्वारा किये गये दुष्कर्मों के कारण हम आपको बारम्बार पुकारते हैं। जो शत्रु हमारे मन को पीड़ा पहुँचाते हैं, हम उनको फरसे के द्वारा वृक्ष की तरह काटते हैं॥३॥
२१९. अशीतिभिस्तिसृभिः सामगेभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिरोभिः।
इष्टापूर्तमवतु नः पितॄणामामुं ददे हरसा दैव्येन॥४॥
तीन (विद्याओं या छन्दों) एवं अस्सी मंत्रों सहित सामगान करने वालों के साथ, वसु, अंगिरा (रुद्र) एवं आदित्यों (दिव्य पितरों) सहित हमारे पितरों द्वारा किये गए इष्ट (यज्ञ -उपासनादि) तथा पूर्त (सेवा-सहयोगपरक) कर्म(उनके पुण्य) हमारी रक्षा करें। हम दिव्य सामर्थ्य एवं आक्रोशपूर्वक अमुक (दोष या शत्रु) को अपने अधिकार में लेते हैं॥४॥
[वसु, रुद्र तथा आदित्यों की गणना दिव्य पितरों में की जाती है, तर्पण में पितरों को क्रमश: वसु, रुद्र और आदित्य स्वरूप कहकर जलप्रदान किया जाता है। इससे पितरों की लौकिक सम्पदा के अतिरिक्त उनके द्वारा अर्जित पुण्य-सम्पदा का विशेष लाभ हमें प्राप्त होता है।]
२२०. द्यावापृथिवी अनु मा दीधीथां विश्वे देवासो अनु मा रभध्वम्।
अङ्गिरसः पितर: सोम्यासः पापमार्छत्वपकामस्य कर्ता॥५॥
हे द्यावा-पृथिवि! हमारे अनुकूल होकर आप तेजस्-संपन्न बनें। हे समस्त देवताओ ! हमारे अनुकूल होकर आप कार्यारंभ करें। हे अङ्गिराओ तथा सोमवान् पितरो ! हमारा अहित चाहने वाले पाप के भागीदार हों ॥५॥
२२१. अतीव यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यो निन्दिषत् क्रियमाणम्।
तपूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषं द्यौरभिसंतपाति॥६॥
हे मरुद्गणो! जो अतिवादी ब्रह्म-ज्ञान की तथा तदनुरूप किये जाने वाले (कार्यों) की निन्दा करते हैं, उनके सब प्रयास उन्हें संताप देने वाले हों। द्युलोक उन ब्रह्मद्वेषियों को पीड़ित करे॥६॥
२२२. सप्त प्राणानष्टौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा।
अया यमस्य सादनमग्निदूतो अरकृतः॥७॥
हे रोग या शत्रु ! तुम्हारे सात प्राणों तथा आठ मुख्य नाड़ियों आदि को हम ब्रह्म शक्ति से बींधते हैं। तुम अग्नि को दूत बनाकर यमराज के घर में सुशोभित हो जाओ॥७॥
२२३. आ दधामि ते पदं समिद्धे जातवेदसि। अग्निः शरीरं वेवेष्टवसुं वागपि गच्छतु॥८॥
हम तुम्हारे पदों को प्रज्वलित अग्नि में डालते है। यह अग्नि आपके शरीर में प्रवेश कर जाए तथा आपकी वाणी और प्राण में संव्याप्त हो जाए ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी