अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:13 – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१३- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त ]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -१ अग्नि, २-३ बृहस्पति, ४-५, आयु विश्वेदेवा। छन्द – त्रिष्टुप. ४ अनुष्टुप, विराट् जगती।]
इस सूक्त को प्रथम वस्त्र परिधान सूक्त के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को ३-४ वर्ष की अवस्था में करने का विधान है। किन्तु सूक्त को इसी उपचारपरक अर्थ तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए । मन्त्रों में ‘वाम’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ वस्त्र के साथ आवास भी हो सकता है। फिर सूक्त के देवता अग्नि हैं, उनसे रक्षा एवं वास प्रदान करने की प्रार्थना की गयी है । ऐश्वर्य एवं पोषण के ताने-बाने से उसे तैयार करने की बात कही गयी है। अस्तु स्थूल वस्त्रों की अपेक्षा सूक्त कबीर की जीवन रूपी चादर के साथ अधिक युक्तिसंगत बैठता है। अध्ययन के समय इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए-
२२४. आयुर्दा अग्ने जरसं वृणानो घृतप्रतीको घृतपृष्ठो अग्ने।
घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रानभि रक्षतादिमम्॥१॥
हे तेजस्वी अग्निदेव ! आप जीवन प्रदान करने वाले तथा स्तुति ग्रहण करने वाले हैं। आप घृत के समान ओजस्वी तथा घृत का सेवन करने वाले है। आप मधुर गव्य (गौ या प्रकृति जन्य) पदार्थों का सेवन करके इस (बालक या प्राणी) को सब प्रकार से उसी प्रकार रक्षा करें, जैसे पिता, पुत्र की रक्षा करता है॥१॥
२२५. परि धत्त धत्त नो वर्चसेमं जरामृत्युं कृणुत दीर्घमायुः।
बृहस्पतिः प्रायच्छद् वास एतत् सोमाय राज्ञे परिधातवा उ ॥२॥
हे देवो ! आप इस (बालक या जीव) को वास (वस्त्र या काया रूप आच्छादन) प्रदान करे नथा तेजस्विता धारण कराएँ। आप दीर्घ आयु प्रदान करें, वृद्धावस्था के उपरान्त मरने वाला वनाएँ। बृहस्पतिदेव ने यह आच्छादन राजा सोम को कृपापूर्वक प्रदान किया॥२॥
२२६. परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्गृष्टीनामभिशस्तिपा उ।
शतं च जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व॥३॥
(हे बालक या जीव !) इस वस्त्र को तुम अपने कल्याण के लिए धारण करो। तुम गौओं (इन्द्रियों) को विनाश से बचाने के लिए ही हो। तुम सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करो और ऐश्वर्य तथा पोषण का ताना-बाना बुनते रहो ॥३॥
[यहाँ साधक को स्वयं अपने लिए वस्त्र बुनने का परामर्श दिया गया है। स्थूल दैवी शक्तियाँ ताने-बाने के सूत्र प्रदान करती हैं, उनका सुनियोजन साधक को स्वयं करना होता है।]
२२७. एह्यश्मानमा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः।
कृण्वन्तु विश्वे देवा आयुष्टे शरदः शतम्॥४॥
(हे बालक या साधक !) आओ इस पत्थर (साधनापरक दृढ़ आधार ) पर स्थित हो जाओ; ताकि तुम्हारी काया पत्थर के समान दृढ़ बने। देव शक्तियाँ तुम्हारी आयु को सौ वर्ष की करें ॥४॥
[दृढ़ अनुशासनों पर स्थिर होकर ही मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।]
२२८. यस्य ते वास: प्रथमवास्यं१ हरामस्तं त्वा विश्वेऽवन्तु देवाः।
तं त्वा भ्रातरः सुवृधा वर्धमानमनु जायन्तां बहवः सुजातम्॥५॥
(हे बालक या जीव !) तुम्हारे जिस अस्तित्व के लिए यह प्रथम आच्छादन प्रदान किया गया है, उसकी रक्षा सभी देवता करें। इसी प्रकार श्रेष्ठ जन्म वाले, सुवर्धित तथा विकासमान और भी भाई तुम्हारे पीछे हो॥५॥
[स्थूल अर्थों में प्रथम वस्त्र (तीसरे-चौथे वर्ष में) प्रदान करने के बाद ही अन्य भाइयों के लिए आशीर्वचन दिया जाता है। इस आधार पर संतानों के बीच ३-४ वर्ष का अंतर सहज ही होना चाहिए। सूक्ष्म अर्थों में कामना की गयी है कि जीवन का तेजस्वी ताना-बाना बुनने वालों के और भी अनुगामी हों, यह प्रक्रिया सतत चलती रहे।]
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी