अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:14 – दस्युनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१४- दस्युनाशन सूक्त]
[ ऋषि – चातन। देवता – शालाग्नि। छन्द – अनुष्टप. २ भुरिक् अनुष्टुप, ४ उपरिष्टाद् विराट् बृहती।]
इस सूक्त के देवता शालाग्नि हैं। यज्ञशाला में स्थापित अग्नि को ‘शालाग्नि’ कहा जाता है। उनके माध्यम से राक्षसियों (राक्षसी प्रवृत्तियों) के निवारण-विनाश के भाव व्यक्त किये गये हैं। कई भाष्यकारों ने उनके लिए प्रयुक्त विशेषणों को उस नाम विशेष वाली राक्षसी कहा है। उस नाम विशेष के साथ उस गुण विशेष वाली राक्षसी(प्रवृत्तियों) का अर्थ अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है-
२२९. निः सालां धृष्णुं धिषणमेकवाद्यां जिघत्स्वम्।
सर्वाश्चण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदान्वाः॥१॥
नि:साला (निष्कासित करने वाली), धृष्णु (भयानक),धिषण (अभिभूत करने वाली), एकवाद्या (भयानक, हठपूर्ण एक ही स्वर से बोलने वाली) संबोधन वाली, खा जाने वाली तथा सदा चीखने वाली, चण्ड (क्रोध या कठोरता) की संतानों को हम नष्ट कर दें ॥१॥
[क्रोध या कठोरता से ही विभिन्न प्रकार की दुष्ट प्रवृत्तियाँ पनपती हैं, अत: उन्हें चण्ड की संतानें कहा जाना उचित है।]
२३०. निर्वो गोष्ठादजामसि निरक्षान्निरुपानसात्।
निर्वो मगुन्द्या दुहितरो गृहेभ्यश्चातयामहे॥२॥
हे मगुन्दी (पाप उत्पन्न करने वाली) राक्षसी की पुत्रियो ! हम तुम्हें अपने गौओं की गोशालाओं से निकालते हैं। हम तुम्हें अन्नादि से पूर्ण भवनों, गाड़ियों से बाहर निकालकर नष्ट करते हैं ॥२॥
२३१. असौ यो अधराद् गृहस्तत्र सन्त्वराय्यः। तत्र सेदिर्न्युच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः॥३॥
(निकाली जाने के बाद) अरायि (दरिद्रता या विपत्ति जन्य) तथा सेदि (क्लेश-महामारी उत्पादक) संबोधन वाली (आसुरी शक्तियाँ) जो नीचे वाले गृह (अधोलोक या भू-गर्भ) हैं, वहीं जाएँ, वहीं रहे॥३॥
२३२. भूतपतिर्निरजत्विन्द्रश्चेतः सदान्वाः।
गृहस्य बुघ्न आसीनास्ता इन्द्रो वज्रेणाधि तिष्ठतु॥४॥
प्राणियों के पालक तथा सोमपायी इन्द्रदेव, हमेशा क्रोध करने वाली इन पिशाचियों को हमारे घर से बाहर करें तथा अपने वज्र से इन्हें दबाएँ (नष्ट करें)॥४॥”
२३३. यदि स्थ क्षेत्रियाणां यदि वा पुरुषेषिताः।
यदि स्थ दस्युभ्यो जाता नश्यतेत: सदान्वाः॥५॥
हे राक्षसियो ! तुम कुष्ठ, संग्रहणी आदि आनुवंशिक रोगों की मूल कारण हो । तुम रिपुओं द्वारा प्रेरित हो और क्षति पहुँचाने वाले चोरों के समीप पैदा हुई हो। अस्तु, तुम हमारे घर से बाहर होकर विनष्ट हो जाओ॥५॥
२३४. परि धामान्यासामाशुर्गाष्ठामिवासरन्।
अजैषं सर्वानाजीन् वो नश्यतेतः सदान्वाः॥६॥
जिस प्रकार द्रुतगामी घोड़े अपने लक्ष्य पर आक्रमण करके खड़े हो (पहुँच) जाते हैं, उसी प्रकार इन राक्षसियों के घरों पर हम आक्रमण कर चुके हैं। हे पिशाचियो ! तुम सब युद्ध में परास्त हो गईं और हमने तुम्हारे निवास स्थान पर नियन्त्रण कर लिया है । अत: तुम सब निराश्रित होकर विनष्ट हो जाओ॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी