अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:15 – अभयप्राप्ति सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१५- अभयप्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – प्राण, अपान, आयु। छन्द -त्रिपाद् गायत्री।]
२३५. यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥१॥
जिस प्रकार द्युलोक एवं पृथ्वी लोक न भयभीत होते हैं और न नष्ट होते हैं, उसी प्रकार हे हमारे प्राण! तुम भी (नष्ट होने का) भय मत करो॥१॥
२३६. यथाहश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥२॥
रात्रि और दिन न डरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं। हे मेरे प्राण! तुम भी (नष्ट होने का) भय मत करो॥२॥
२३७. यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥३॥
जैसे सूर्य और चन्द्रमा न डरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हे प्राण ! तुम भी विनाश से मत डरो॥३॥
२३८. यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥४॥
जिस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय न डरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हे हमारे प्राण ! तुम भी विनाश का भय मत करो ॥४॥
२३९. यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥५॥
जिस प्रकार सत्य और असत्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हे हमारे प्राण ! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रहो ॥५॥
२४०. यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा बिभेः॥६॥
जिस प्रकार भूत और भविष्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हे हमारे प्राण! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रहो॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य