अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:19 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[१९- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – अग्नि। छन्द -एकावसाना निवृत् विषमा त्रिपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरिक् विषमा त्रिपदा गायत्री।]
२५८. अग्ने यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥१॥
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो ताप है, उस शक्ति के द्वारा आप रिपुओं को तप्त करें । जो शत्रु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं, उन रिपुओं को आप संतप्त करें॥१॥
२५९. अग्ने यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥२॥
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो हरने की शक्ति विद्यमान है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हम से विद्वेष करते हैं तथा हम जिससे द्वेष करते हैं॥२॥
२६०. अग्ने यत् तेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥३॥
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो दीप्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते है॥३॥
२६१. अग्ने यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥४॥
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शनि के द्वारा आप उन व्यक्तियों को शोकाकुल करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं॥४॥
२६२. अग्ने यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥५॥
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उस अभिभूत करने की तेजस्विता के द्वारा आप उन मनुष्यों को निस्तेज करें, जो हमसे शत्रुता करते है तथा जिनसे हम शत्रुता करते है॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी