अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:21 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२१- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -सूर्य। छन्द -एकावसाना निचृत् विषमा त्रिपदागायत्री, ५ भुरिक विषमा त्रिपदागायत्री]
२६८. सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥१॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो संतप्त करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं॥१॥
२६९. सूर्य यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥२॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं॥२॥
२७०. सूर्य यत् तेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥३॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है , उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥३॥
२७५. सूर्य यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥४॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो शोकाभिभूत करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥४॥
२७२. सूर्य यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥५॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उसके द्वारा आप उन मनुष्यों को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी