अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:22 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२२- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – चन्द्र। छन्द -एकावसाना निचृत् विषमा त्रिपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरिक् विषमा त्रिपदा गायत्री।]
२७३. चन्द्र यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥१॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो तपाने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥१॥
२७४. चन्द्र यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥२॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥२॥
२७५. चन्द्र यत् तेऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥३॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥३॥
२७६. चन्द्र यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥४॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥४॥
२७७. चन्द्र यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥५॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे शत्रता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी