अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:23 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२३- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -आप:। छन्द -एकावसाना समविषमा त्रिपदागायत्री, ५ स्वराट् विषमा त्रिपदागायत्री ]
२७८. आपो यद् वस्तपस्तेन तं प्रति तपत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥१॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो ताप (प्रताप) है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपओं को संतप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥१॥
२७९. आपो यद् वो हरस्तेन तं प्रति हरत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥२॥
हे जलदेव! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥२॥
२८०. आपो यद् वोऽर्चिस्तेन तं प्रत्यर्चत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥३॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥३॥
२८१. आपो यद् वः शोचिस्तेन तं प्रति शोचत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥४॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाकुल करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं॥४॥
२८२. आपो यद् वस्तेजस्तेन तमतेजसं कृणुत योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः॥५॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उसके द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी