अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:26 – पशुसंवर्धन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२६- पशुसंवर्धन सूक्त]
[ ऋषि – सविता। देवता – पशु समूह। छन्द – त्रिष्टुप, ३ उपरिष्टात् विराट् बृहती, ४ भुरिक अनुष्टुप.५ अनुष्टुप्।]
इस सूक्त में पशुओं के सुनियोजन के मंत्र हैं। यहाँ ‘पशु’ का अर्थ ‘प्राणि – मात्र’ लिया जाने योग्य है, जैसा कि मंत्र क्र. ३ से स्पष्ट होता है। प्राण-जीव चेतना को भी पशु कहते हैं, इसी आधार पर ईश्वर को पशुपति कहा गया है। इस आशय से ‘गोष्ठ’ पशुओं के बाड़े के साथ प्राणियों की देह को भी कह सकते हैं। व्यसनों में भटके हुए प्राण-प्रवाहों को यथास्थान लाने का भाव भी यहाँ लिया जा सकता है-
२९६. एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्येषां सहचारं जुजोष।
त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन् तान् गोष्ठे सविता नि यच्छतु॥१॥
जो पशु इस स्थान से परे चले (भटक) गये हैं, वे पुन: इस गोष्ठ (पशु-आवास) में चले आएँ। जिन पशुओं की सुरक्षा के लिए वायुदेव सहयोग करते हैं और जिनके नाम-रूप को त्वष्टादेव जानते हैं; हे सवितादेव ! आप उन पशुओं को गोष्ठ में स्थित करें॥१॥
२९७. इमं गोष्ठं पशवः सं स्रवन्तु बृहस्पतिरा नयतु प्रजानन्।
सिनीवाली नयत्वाग्रमेषामाजग्मुषो अनुमते नि यच्छ॥२॥
गौ आदि पशु हमारे गोष्ठ में आ जाएँ। बृहस्पतिदेव उन्हें लाने की विधि को जानते हैं, अत: वे उनको ले आएँ । सिनीवाली इन पशुओं को सामने के स्थान में ले आएँ। हे अनुमते ! आप आने वाले पशुओं को नियम में रखें ॥२॥
२९८.सं सं स्त्रवन्तु पशवः समश्वाः समु पूरुषाः।
सं धान्यस्य या स्फाति: संस्राव्येण हविषा जुहोमि॥३॥
गौ आदि पशु, अश्व तथा मनुष्य भी मिल-जुल कर चलें। हमारे यहाँ धान्य आदि की वृद्धि भली प्रकार हो। हम उसको प्राप्त करने के लिए घृत की आहुति प्रदान करते हैं॥३॥
२९९. सं सिञ्चामि गवां क्षीरं समाज्येन बलं रसम्।
संसिक्ता अस्माकं वीरा ध्रुवा गावो मयि गोपतौ॥४॥
हम गौओं के दूध को सिंचित करते हैं तथा शक्तिवर्द्धक रस को घृत के साथ मिलाते हैं। हमारे वीर पुत्र घृत आदि से सिंचित हों तथा मुझ गोपति के पास गौएँ स्थिर रहें॥४॥
३००. आ हरामि गवां क्षीरमाहार्षं धान्यं१ रसम्।
आता अस्माकं वीरा आ पत्नीरिदमस्तकम्॥५॥
हम अपने घर में गो-दुग्ध, धान्य तथा रस लाते हैं। हम अपने वीरपुत्रो तथा पत्नियों को भी घर में लाते हैं॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी