November 28, 2023

अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:29 – दीर्घायुष्य सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[२९- दीर्घायुष्य सूक्त]

[ ऋषि – अथर्वा। देवता – १ वैश्वदेवी (अग्नि, सूर्य, बृहस्पति), २ आयु, जातवेदस्, प्रजा, त्वष्टा, सविता, धन, शतायु, ३ इन्द्र, सौप्रजा, ४-५ द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा, मरुद्गण, आपोदेव, ६ अश्विनीकुमार, ७ इन्द्र। छन्द – त्रिष्टुप, १ अनुष्टुप, ४ पराबृहती निचृत् प्रस्तारपंक्ति।]

३१३. पार्थिवस्य रसे देवा भगस्य तन्वो३ बले।
आयुष्यमस्मा अग्निः सूर्यो वर्च आ धाद् बृहस्पतिः॥१॥

पार्थिव रस (पृथ्वी से उत्पन्न अथवा पार्थिव शरीर से उत्पन्न पोषक रसों) का पान करने वाले व्यक्ति को समस्तदेव ‘भग’ के समान बलशाली बनाएँ। अग्निदेव इसको सौ वर्ष की आयु प्रदान करें और आदित्य इसे तेजस् प्रदान करें तथा बृहस्पतिदेव इसे वेदाध्ययनजन्य कान्ति (बह्मवर्चस) प्रदान करें॥१॥

३१४. आयुरस्मै धेहि जातवेदः प्रजां त्वष्टरधिनिधेह्यस्मै।
रायस्पोषं सवितरा सुवास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम्॥२॥

हे जातवेदा अग्निदेव ! आप इसे शतायु प्रदान करें। हे त्वष्टादेव ! आप इसे पुत्र-पौत्र आदि प्रदान करें। हे सवितादेव ! आप इसे ऐश्वर्य तथा पुष्टि प्रदान करें। आपकी अनुकम्पा प्राप्त करके यह मनुष्य सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहे॥२॥

३१५. आशीर्ण ऊर्जमुत सौप्रजास्त्वं दक्षं धत्तं द्रविणं सचेतसौ।
जयं क्षेत्राणि सहसायमिन्द्र कृण्वानो अन्यानधरान्सपत्नान्॥३॥

हे द्यावा-पृथिवि ! आप हमें आशीर्वाद प्रदान करें। आप हमें श्रेष्ठ सन्तान, सामर्थ्य, कुशलता तथा ऐश्वर्य प्रदान करें। हे इन्द्रदेव ! आपकी कृपा से यह व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के द्वारा रिपुओं को विजित करे और उनके स्थानों को अपने नियंत्रण में ले ले॥३॥

३१६. इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टो मरुद्भिग्रः प्रहितो न आगन्।
एष वां द्यावापृथिवी उपस्थे मा क्षुधन्मा तृषत्॥४॥

इन्द्रदेव द्वारा आयुष्य पाकर, वरुण द्वारा शासित होकर तथा मरुतों द्वारा प्रेरणा पाकर यह व्यक्ति हमारे पास आया है। हे द्यावा-पृथिवि ! आपकी गोद में रहकर यह व्यक्ति क्षुधा और तृषा से पीड़ित न हो ॥४॥

३१७. ऊर्जमस्मा ऊर्जस्वती धत्तं पयो अस्मै पयस्वती धत्तम्।
ऊर्जमस्मै द्यावापृथिवी अधातां विश्वे देवा मरुत ऊर्जमापः॥५॥

हे बलशाली द्यावा-पृथिवि ! आप इस व्यक्ति को अन्न तथा जल प्रदान करें। हे द्यावा-पृथिवि ! आपने इस व्यक्ति को अन्न-बल प्रदान किया है और विश्वेदेवा, मरुद्गण तथा जलदेव ने भी इसको शक्ति प्रदान की है॥५॥

३१८. शिवाभिष्टे हृदयं तर्पयाम्यनमीवो मोदिषीष्ठाः सुवर्चाः।
सवासिनौ पिबतां मन्थमेतमश्विनो रूपं परिधाय मायाम्॥६॥

हे तृषार्त मनुष्य ! हम आपके शुष्क हृदय को कल्याणकारी जल से तृप्त करते हैं। आप नीरोग तथा श्रेष्ठ तेज से युक्त होकर हर्षित हों । एक वस्त्र धारण करने वाले ये रोगी, अश्विनीकुमारों के माया (कौशल) को ग्रहण करके इस रस का पान करें॥६॥

३१९. इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जा स्वधामजरां सा त एषा।
तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद् भिषजस्ते अक्रन्॥७॥

इन्द्रदेव ने इस (रस) को तृषा से निवृत्त होने के लिए विनिर्मित किया था। हे रोगिन् ! जो रस आपको प्रदान किया है, उसके द्वारा आप शक्ति-तेजस से सम्पन्न होकर सौ वर्ष तक जीवित रहें। यह आपके शरीर से अलग न हो। आपके लिए वैद्यों ने श्रेष्ठ औषधि बनाई है ॥७॥

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!