अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:32 – कृमिनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[३२- कृमिनाशन सूक्त]
[ ऋषि – काण्व। देवता– आदित्यगण। छन्द -अनुष्टुप् , १ त्रिपात् भुरिक् गायत्री, ६ चतुष्पाद निचृत् उष्णिक्।]
३३०.उद्यान्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः। ये अन्त: क्रिमयो गवि॥१॥
उदित होते हुए तथा अस्त होते हुए सूर्यदेव अपनी किरणों के द्वारा जो कीटाणु पृथ्वी पर रहते हैं, उन समस्त कीटाणुओं को विनष्ट करें ॥१॥
[सूर्य किरणों की रोगनाशक क्षमता का यहाँ संकेत किया गया है।]
३३१. विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमिं सारङ्गमर्जुनम्। शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः॥२॥
विविध रूप वाले, चार अश्वों वाले, रेंगने वाले तथा सफेद रंग वाले कीटाणुओं की हड्डियों तथा सिर को हम तोड़ते हैं॥२॥
३३२. अत्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज्जमदग्निवत्।
अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन्॥३॥
हे कृमियो ! हम अत्रि, कण्व और जमदग्नि ऋषि के सदृश, मंत्र शक्ति से तुम्हें मारते हैं तथा अगस्त्य ऋषि की मंत्र शक्ति से तुम्हें पीस डालते हैं॥३॥
३३३. हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः।
हतो हतमाता क्रिमिर्हतभ्राता हतस्वसा॥४॥
हमारे द्वारा ओषधि प्रयोग करने पर कीटाणुओं का राजा तथा उसका मंत्री मारा गया। वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन सहित स्वयं भी मारा गया॥४॥
३३४. हतासो अस्य वेशसो हतासः परिवेशसः।
अथो ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः॥५॥
इन कीटाणुओं के बैठने वाले स्थान तथा पास के घर विनष्ट हो गये और बीजरूप में विद्यमान दुर्लक्षित (कठिनाई से दिखाई पड़ने वाले) छोटे-छोटे कीटाणु भी नष्ट हो गये॥५॥
३३५. प्र ते शृणामि शृङ्गे याभ्यां वितुदायसि। भिनद्मि ते कुषुम्भं यस्ते विषधानः॥६॥
हे कीटाणुओ ! हम तुम्हारे उन सींगों को तोड़ते हैं, जिनके द्वारा तुम पीड़ा पहुँचाते हो। हम तुम्हारे कुषुम्भ (विष ग्रन्थि) को तोड़ते हैं, जिसमें तुम्हारा विष रहता है ॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी