अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:33 – यक्ष्मविबर्हण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[३३- यक्ष्मविबर्हण सूक्त]
[ ऋषि -ब्रह्मा। देवता – यक्षविबर्हण (पृथक्करण) चन्द्रमा, आयुष्य। छन्द -अनुष्टुप, ३ ककुम्मती अनुष्टप्। चतुष्पाद भुरिक् उष्णिक, ५ उपरिष्टात् बृहती, ६ उष्णिक् गर्भानिचृत्अनुष्टुप्, ७ पथ्यापंक्ति।]
३३६. अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते॥१॥
हे रोगिन् ! आपके दोनों नेत्रों, दोनों कानों, दोनों नासिका रन्ध्रों, ठोढ़ी, सिर, मस्तिष्क और जिह्वा से हम यक्ष्मारोग को दूर करते हैं॥१॥
३३७. ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्य: कीकसाभ्यो अनूक्यात्।
यक्ष्मं दोषण्य१मंसाभ्यां-बाहुभ्यां वि वृहामि ते॥२॥
हे रोग से ग्रस्त मनुष्य ! आपकी गर्दन की नाड़ियों, ऊपरी स्नायुओं, अस्थियों के संधि भागों, कन्धों, भुजाओं और अन्तर्भाग से हम यक्ष्मारोग का विनाश करते हैं ॥२॥
३३८. हृदयात् ते परि क्लोम्नो हलीक्ष्णात् पार्श्वाभ्याम्।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां प्लीह्रो यक्नस्ते वि वृहामसि॥३॥
हे व्याधिग्रस्त मानव ! हम आपके हृदय, फेफड़ों, पित्ताशय, दोनों पसलियों, गुर्दो, तिल्ली तथा जिगर से यक्ष्मारोग को दूर करते हैं॥३॥
३३९.आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि।
यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते॥४॥
आपकी आँतों, गुदा, नाड़ियों, हृदयस्थान, मूत्राशय, यकृत और अन्यान्य पाचनतंत्र के अवयवों से हम यक्ष्मारोग का निवारण करते हैं ॥४॥
३४०. ऊरुभ्यां ते अष्ठीद्भ्यां पार्ष्णिभ्यां प्रपदाभ्याम्।
यक्ष्मं भसद्यं१ श्रोणिभ्यां भासदं भंससो वि वहामि ते॥५॥
हे रोगिन्! आपकी दोनों जंघाओं, जानुओं, एड़ियों, पंजों, नितम्बभागों, कटिभागों और गुदा द्वार से हम यक्ष्मारोग को दूर करते हैं ॥५॥
३४१. अस्थिभ्यस्ते मज्जभ्यः स्नावभ्यो धमनिभ्यः।
यक्ष्मं पाणिभ्यामङ्गुलिभ्यो नखेभ्यो वि वृहामि ते॥६॥
हम अस्थि, मज्जा, स्नायुओं, धमनियों, पुट्ठों, हाथों, अंगुलियों तथा नाखूनों से यक्ष्मारोग को दूर करते हैं।
३४२. अङ्गेअड़े लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि।
यक्ष्म त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि॥७॥
प्रत्येक अंग, प्रत्येक लोम और शरीर के प्रत्येक संधि भाग में, जहाँ कही भी यक्ष्मा रोग का निवास है, वहाँ से हम उसे दूर करते हैं ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी