अथर्ववेद – Atharvaveda – 2:35 – विश्वकर्मा सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ द्वितीय काण्डम्॥
[३५-विश्वकर्मा सूक्त]
[ ऋषि – अङ्गिरा। देवता – विश्वकर्मा। छन्द – त्रिष्टुप १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्, ४-५ भुरिक् त्रिष्टुप्।]
३४८. ये भक्षयन्तो न वसून्यानृधुर्यानग्नयो अन्वतप्यन्त धिष्ण्याः।
या तेषामवया दुरिष्टिः स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा॥१॥
यज्ञ कार्य में धन खर्च न करके भक्षण कार्य में धन खर्च करने के कारण हम समृद्ध नहीं हुए। इस प्रकार हम यज्ञ न करने वाले,और दुर्यज्ञ करने वाले हैं। अत: हमारी श्रेष्ठ यज्ञ करने की अभिलाषा को विश्वकर्मादेव पूर्ण करें॥१॥
३४९. यज्ञपतिमृषय एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम्।
मथव्यान्त्स्तोकानप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा॥२॥
प्रजाओं के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञपति को ऋषि पाप से अलग बताते हैं। जिन विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात् किया है, वे विश्वकर्मादेव उन बूंदों से हमारे यज्ञ को संयुक्त करें॥२॥
३५०. अदान्यान्त्सोमपान् मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः।
यदेनश्चकृवान् बद्ध एष तं विश्वकर्मन् प्रमुञ्चा स्वस्तये॥३॥
जो व्यक्ति दान न करके मनमाने ढंग से सोमपान करता है, वह न नो यज्ञ को जानता है और न धैर्यवान् होता है। ऐसा व्यक्ति बद्ध होकर पाप करता है। हे विश्वकर्मादेव! आप उसे कल्याण के लिए पाप-बन्धनों से मुक्त करें॥३॥
३५१. घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्।
बृहस्पतये महिष धुमन्नमो विश्वकर्मन् नमस्ते पाह्य१स्मान्॥४॥
ऋषिगण अत्यन्त तेजस्वी होते हैं, क्योंकि उनके आँखों तथा मनों में सत्य प्रकाशित होता है। ऐसे ऋषियों को हम प्रणाम करते हैं तथा देवताओं के पालन करने वाले बृहस्पतिदेव को भी प्रणाम करते हैं। हे महान् विश्वकर्मा देव ! हम आपको प्रणाम करते हैं; आप हमारी सुरक्षा करें॥४॥
३५२. यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः॥५॥
जो अग्निदेव यज्ञ के नेत्र स्वरूप पोषणकर्ता तथा मुख के समान हैं, उन (अग्निदेव) के प्रति हम मन, श्रोत्र तथा वचनों सहित हव्य समर्पित करते हैं। विश्वकर्मा देव के द्वारा किये गये इस यज्ञ के लिए श्रेष्ठ मन वाले देव पधारें ॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी