अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:01 – शत्रुसेनासंमोहन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ तृतीय काण्डम्॥
[१- शत्रुसेनासंमोहन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – सेनामोहन (१ अग्नि, २ मरुद्गण, ३-६ इन्द्र)। छन्द – ५.४ त्रिष्टुप. २. विराट्गर्भाभुरिक्त्रिष्टुप, ३,६ अनुष्टुप.५ विराट् पुरउष्णिक्।]
३६१. अग्निनः शत्रून् प्रत्येतु विद्वान् प्रतिदहन्नभिशस्तिमरातिम्।
स सेनां मोहयतु परेषां निहस्तांश्च कृणवज्जातवेदाः॥१॥
ज्ञानी अग्निदेव (अथवा अग्रणी वीर) विनाश के लिए उद्यत रिपु सेनाओं के चित्त को भ्रमित करके, उनके हाथों को शस्त्र रहित कर दें। वे रिपुओं के अंगों को जलाते (नष्ट करते) हुए आगे बढ़े॥१॥
३६२. यूयमुग्रा मरुत ईदृशे स्थाभि प्रेत मृणत सहध्वम्।
अमीमृणन् वसवो नाथिता इमे अग्निर्हेषां दूतः प्रत्येतु विद्वान्॥२॥
हे मरुतो आप ऐसे (संग्राम) में उग्र होकर (हमारे पास स्थित रहें। आप आगे बढ़ें, प्रहार (शत्रुओ) को जीत लें। ये वसुगण भी शत्रु विनाशक हैं। इनके संदेशवाहक विद्वान् अग्निदेव भी रिपुओं की ओर ही अग्रगामी हो।
३६३. अमित्रसेनां मघवन्नस्माञ्छत्रुयतीमभि।
युवं तानिन्द्र वृत्रहन्नग्निश्च दहतं प्रति॥३॥
हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप वृत्र का संहार करने वाले हैं। आप और अग्निदेव दोनों मिलकर हमसे शत्रुता करने वाली रिपु सेनाओं को परास्त करके उन्हें भस्मसात् कर दें॥३॥
३६४. प्रसूत इन्द्र प्रवता हरिभ्यां प्र ते वज्रः प्रमृणन्नेतु शत्रून्।
जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विष्वक् सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम्॥४॥
हे इन्द्रदेव ! हरि नामक अश्वों से गतिमान् आपका रथ ढालू मार्ग से वेगपूर्वक शत्रु सेना की ओर बढ़े। आप अपने प्रचण्ड वज्र से शत्रुओं पर प्रहार करें । आप सामने से आते हुए तथा मुख मोड़कर जाते हुए सभी शत्रुओं पर प्रहार करें। युद्ध में संलग्न शत्रुओं के चित्त को आप विचलित कर दें ॥४॥
३६५. इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम्।
अग्नेर्वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो वि नाशय॥५॥
हे इन्द्रदेव ! आप रिपुओं की सेनाओं को भ्रमित करें। उसके बाद अग्नि और वायु के प्रचण्ड वेग से उन (रिपु सेनाओ) को चारों ओर से भगाकर विनष्ट कर दें॥५॥
३६६. इन्द्रः सेनां मोहयतु मरुतो घ्नन्त्वोजसा।
चक्षूंष्यग्निरा दत्तां पुनरेतु पराजिता॥६॥
हे इन्द्रदेव ! आप रिपु सेनाओं को सम्मोहित करें और मरुद्गण बलपूर्वक उनका विनाश करें। अग्निदेव उनकी आँखों (नेत्र ज्योति) को हर लें। इस प्रकार परास्त होकर रिपु सेना वापस लौट जाए॥६॥
– भाष्यकार – वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी