अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:02 – शत्रुसेनासंमोहन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ तृतीय काण्डम्॥
[२- शत्रुसेनासंमोहन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – सेनामोहन (१-२ अग्नि, ३-४ इन्द्र , ५ द्यौ, ६ मरुद्गण)। छन्द – त्रिष्टुप्. २-४ अनुष्टुप्।]
३६७. अग्निर्नो दूतः प्रत्येतु विद्वान् प्रतिदहन्नभिशस्तिमरातिम्।
स चित्तानि मोहयतु परेषां निहस्तांश्च कृणवज्जातवेदाः॥१॥
देवदूत के सदश अग्रणी तथा विद्वान् अग्निदेव हमारे रिपुओं को जलाते हुए उनकी ओर बढ़े। वे रिपुओं के चित्त को भ्रमित करें तथा उनके हाथों को आयुधों से रहित करें॥१॥
३६८. अयमग्निरमूमुहद् यानि चित्तानि वो हृदि।
वि वो धमत्वोकसः प्र वो धमतु सर्वतः॥२॥
हे शत्रुओ! तुम्हारे हृदय में जो विचार-समूह हैं, उनको अग्निदेव सम्मोहित कर दें तथा तुम्हें तुम्हारे निवास स्थानों से दूर हटा दें॥२॥
३६९. इन्द्र चित्तानि मोहयन्नर्वाङाकूत्या चर।
अग्नेर्वातस्य धाज्या तान् विषूचो वि नाशय॥३॥
हे इन्द्रदेव ! आप रिपुओं के मनों को सम्मोहित करते हुए शुभ संकल्पों के साथ हमारे समीप पधारें। उसके बाद अग्निदेव एवं वायुदेव के प्रचण्ड वेग से उन रिपुओं की सेनाओं को चारों ओर से विनष्ट कर दें॥३॥
३७०. व्याकूतय एषामिताथो चित्तानि मुह्यत। अथो यदद्यैषां हृदि तदेषां परि निर्जहि॥४॥
हे विरुद्ध संकल्पो ! आप रिपुओं के मन में गमन करें। हे रिपुओं के मन ! आप मोहग्रस्त हों। हे इन्द्रदेव! युद्ध के लिए उद्यत रिपुओं के संकल्पों को आप पूर्णतया विनष्ट कर दें॥४॥
३७१. अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि।
अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैाह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून्॥५॥
हे अप्वे (पापवृत्ति या व्याधि)! तुम शत्रुओं को सम्मोहित करते हुए उनके शरीरों में व्याप्त हो जाओ। हे अप्वे !तुम आगे बढ़ो और उनके हृदयों को शोक से दग्ध करो, उन्हें जकड़कर पीड़ित करते हुए विनष्ट कर डालो॥५॥
३७२. असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।
तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात्॥६॥
हे मरुतो! जो रिपु सेनाएँ अपनी सामर्थ्य के मद में स्पर्धापूर्वक हमारी ओर आ रहीं हैं, उन सेनाओं को आप अपने कर्महीन करने वाले अन्धकार से सम्मोहित करें, जिससे इनमें से कोई भी शत्रु एक-दूसरे को पहचान न सके॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी