अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:03 – स्वराजपुनः स्थापन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
॥अथ तृतीय काण्डम्॥
[३ – स्वराजपुनः स्थापन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -१ अग्नि, २,६ इन्द्र,३ वरुण, सोम, इन्द्र, ४ श्येन, अश्विनीकुमार, ५ इन्द्राग्नी, विश्वेदेवा। छन्द – त्रिष्टुप्, ३ चतुष्पदा भुरिक पंक्ति, ५-६ अनुष्टुप्।]
कौशिक सूत्र में इस सूक्त का विनियोग राजा को उसके खोये हुए राज्य पर पुनः स्थापित करने के रूप में दिया गया है। इस विशिष्ट संदर्भ में भी इसका प्रयोग होता रहा होगा; किन्तु मंत्रार्थ इस क्रिया तक सीमित किये जाने योग्य नहीं हैं। किसी भी प्राणवान द्वारा अपने खोए वर्चस्व की प्राप्ति, जीवन-चेतना या तेजस्वी प्राण-प्रवाहों को उपयुक्त स्थलों (काया, प्रकृति के विभिन्न घटकों) में प्रतिष्ठित करने का भाव इसमें स्पष्ट भासित होता है-
३७३. अचिक्रदत् स्वपा इह भुवदग्ने व्यचस्व रोदसी उरूची।
युञ्जन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदस आमुं नय नमसा रातहव्यम्॥१॥
हे अग्निदेव! यह (जीव या पदेच्छु व्यक्ति या राजा) स्वयं का पालन-रक्षण करने वाला हो-ऐसी घोषणा की गई है। आप सम्पूर्ण द्यावा-पृथिवी में व्याप्त हों। मरुद्गण और विश्वेदेवा आपके साथ संयुक्त हों। आप नम्रतापूर्वक हविदाता को यहाँ लाएँ, स्थापित करें ॥१॥
३७४. दूरे चित् सन्तमरुषास इन्द्रमा च्यावयन्तु सख्याय विप्रम्।
यद् गायत्री बृहतीमर्कमस्मै सौत्रामण्या दधृषन्त देवाः॥२॥
हे तेजस्विन् ! आप इस तेजस्वी की मित्रता के लिए दूरस्थ ज्ञानी इन्द्रदेव को यहाँ लाएँ । समस्त देवताओं ने गायत्री छन्द, बृहती छन्द तथा सौत्रामणी यज्ञ के माध्यम से इसे धारण किया है॥२॥
३७५. अद्भ्यस्त्वा राजा वरुणो ह्वयतु सोमस्त्वा ह्वयतु पर्वतेभ्यः।
इन्द्रस्त्वा ह्वयतु विड्भ्य आभ्यः श्येनो भूत्वा विश आ पतेमाः॥३॥
हे तेजस्विन् ! वरुणदेव जल के लिए, सोमदेव पर्वतों के लिए तथा इन्द्रदेव प्रजाओं (आश्रितों को प्राणवान् बनाने) के लिए आपको बुलाएँ। आप श्येन की गति से इन विशिष्ट स्थानों पर आएँ॥३॥
३७६. श्येनो हव्यं नयत्वा परस्मादन्यक्षेत्रे अपरुद्धं चरन्तम्।
अश्विना पन्थां कृणुतां सुगं त इमं सजाता अभिसंविशध्वम्॥४॥
स्वर्ग में निवास करने वाले देवता, अन्य क्षेत्रों में विचरने वाले हव्य (बुलाने योग्य या हवनीय) को श्येन के समान द्रुतगति से अपने देश में ले आएँ। हे तेजस्विन् ! आपके मार्ग को दोनों अश्विनीकुमार सुख से आने योग्य बनाएँ। सजातीय (व्यक्ति या तत्त्व) इसे उपयुक्त स्थल में प्रविष्ट कराएँ ॥४॥
३७७. ह्वयन्तु त्वा प्रतिजनाः प्रति मित्रा अवृषत।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्ते विशि क्षेममदीधरन॥५॥
हे तेजस्विन् ! प्रतिकूल चलने वाले भी (आपका महत्त्व समझकर) आपको बुलाएँ । मित्रजन आपको संवर्द्धित करें। इन्द्राग्नि तथा विश्वेदेवा आपके अन्दर क्षेम (पालन-संरक्षण) की क्षमता धारण कराएँ॥५॥
३७८. यस्ते हवं विवदत् सजातो यश्च निष्ट्यः।
अपाञ्चमिन्द्र तं कृत्वाथेममिहाव गमय॥६॥
हे इन्द्रदेव ! सभी विजातीय और सजातीय जन आपके आह्वनीय पक्ष की समीक्षा करें। उस (अवांछनीय) को बहिष्कृत करके, इस (वांछनीय) को यहाँ ले आएँ ॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य