अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:05 – राजा और राजकृत सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ तृतीय काण्डम्॥
[५ – राजा और राजकृत सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – सोम या पर्णमणि। छन्द – अनुष्टुप. १ पुरोऽनुष्टपत्रिष्टुप, ४ त्रिष्टुप.८ विराट्उरोबृहती।]
इस सूक्त में पर्णमणि का विवरण है। कोशों में पर्ण का अर्थ ‘पलाश’ दिया गया है, इस आधार पर कई आचार्यों ने पर्णमणि को पलाशमणि माना है। इधर शत०बा० (६.५.१.१) के अनुसार ‘सोमो वै पर्णः’ (सोम ही पर्ण है) तथा तै०ग्रा० (१.२.१.६) में यह पर्ण ‘सोमपर्ण से ही बना हुआ कहा गया है। इस आधार पर पर्णमणि को सोममणि कह सकते हैं। वेद के अनुसार सोम’ दिव्यपोषक रस के रूप में प्रसिद्ध है। इस आधार पर यह किन्हीं दिव्य ओषधियों के संयोग से निर्मित हो सकता है। प्रथम मंत्र में इसे ‘देवानाम् ओज’ तथा ‘ओषधीनां पयः’ (देवों का ओज तथा ओषधियों का सार) कहा गया है। इस कथन के आधार पर भी इसे सोम या अनेक ओषधियों के संयोग से निर्मित माना जा सकता है-
३८६. आयमगन् पर्णमणिर्बली बलेन प्रमणन्त्सपत्नान्।
ओजो देवानां पय ओषधीनां वर्चसा मा जिन्वत्वप्रयावन्॥१॥
यह बलशाली पर्णमणि अपने बल के द्वारा रिपुओं को विनष्ट करने वाली है। यह देवों का ओजस् तथा ओषधियों का साररूप है। यह हमें अपने वर्चस् से पूर्ण कर दे॥१॥
३८७. मयि क्षत्रं पर्णमणे मयि धारयताद् रयिम्।
अहं राष्ट्रस्याभीवर्गे निजो भूयासमुत्तमः॥२॥
हे पर्णमणे! आप हमारे अन्दर शक्ति तथा ऐश्वर्य स्थापित करें, जिससे हम राष्ट्र के विशिष्ट वर्ग में उत्तम आत्मीय बन कर रहे॥२॥
३८८.यं निदधर्वनस्पतौ गुह्यं देवा: प्रियं मणिम्। तमस्मभ्यं सहायुषा देवा ददतु भर्तवे॥३॥
जिस गुप्त तथा प्रिय मणि को देवताओं ने वनस्पतियों में स्थापित किया है, उस मणि को देवगण पोषण तथा आयु-संवर्द्धन के लिए हमें प्रदान करें॥३॥
३८९. सोमस्य पर्णः सह उग्रमागन्निन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः।
तं प्रियासं बहु रोचमानो दीर्घायुत्वाय शतशारदाय॥४॥
इन्द्रदेव के द्वारा प्रदत्त तथा वरुणदेव के द्वारा सुसंस्कारित यह सोमपर्णमणि प्रचण्ड बल से सम्पन्न होकर हमें प्राप्त हो। उस तेजस्वी मणि को हम दीर्घायु तथा शतायु की प्राप्ति के लिए प्रिय मानते हैं॥४॥
३९०. आ मारुक्षत् पर्णमणिर्मह्या अरिष्टतातये।
यथाहमुत्तरोऽसान्यर्यम्ण उत संविदः॥५॥
यह पर्णमणि चिरकाल तक हमारे समीप रहती हुई हमारे लिए कल्याणकारी हो। हम अर्यमादेव की कृपा से इसे धारण करके समान बल वालों से भी महान् बन सकें॥५॥
३९१. ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः।
उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान्॥६॥
हे पर्णमणे ! धीवर, रथ बनाने वाले, लौह कर्म करने वाले, जो मनीषी हैं, उन सबको हमारे चारों तरफ परिचर्या के लिए आप उपस्थित करें॥६॥
३९२. ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये।
उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान्॥७॥
हे मणे ! जो विभिन्न देशों के राजा और राजाओं का अभिषेक करने वाले हैं तथा जो सूत और ग्राम के नायक है, उन सभी को आप हमारे चारों ओर उपस्थित करें॥७॥
३९३. पर्णोऽसि तनूपानः सयोनिर्वीरो वीरेण मया।
संवत्सरस्य तेजसा तेन बधामि त्वा मणे॥८॥
सोमपर्ण से उद्भूत हे मणे! आप शरीर-रक्षक हैं। आप वीर हैं, हमारे समान -जन्मा हैं। आप सविता के तेज से परिपूर्ण हैं, इसलिए आपका तेज ग्रहण करने के लिए हम आपको धारण करते हैं ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य