अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:06 – शत्रुनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
॥अथ तृतीय काण्डम्॥
[६- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – जगबीज पुरुष। देवता – अश्वत्थ (वनस्पति)। छन्द – अनुष्टुप्।]
इस सूक्त के प्रथम मंत्र में ‘अश्वत्थ खदिरे अधि’ वाक्य आता है। इस सूक्त के द्वारा खदिर (खैर) के वृक्ष में से उगे अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष से बनी मणि का प्रयोग कौशिक सूत्र में दिया गया है। सायणादि आचार्यों ने उसी संदर्भ में सूक्त के अर्थ किये हैं। व्यापक संदर्भ में ‘अश्वत्थ खदिरे अधि’ वाक्य गीता के कथन ‘ऊर्ध्वमूलमधःशाखम्’ वाले अश्वत्थ के भाव को स्पष्ट करने वाला है। वाचस्पत्यम् कोष में आकाश से इष्टापूर्त करने वाले को खदिर कहा है (खे आकाशे दीर्य्यते इष्टापूर्त कारिभिर्यत:वा० पृ० २४६४)। गीतोक्त अश्वत्थ अनश्वर विश्व वृक्ष-या जीवन चक्र है, जिसकी जड़ें ऊपर ‘आकाश’ में हैं, इसलिये इस अश्वत्थ को ‘खदिरे अधि’ (आकाश से इष्टापूर्त के क्रम में स्थित) कह सकते हैं। इस सूक्त के ऋषि जगबीज पुरुष’ (विश्व के मूल कारण पुरुष) हैं । इस आधार पर अश्वत्थ की संगति विश्ववृक्ष के साथ सटीक बैठती है-
३९४. पुमान् पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि।
स हन्तु शत्रून् मामकान् यानहं द्वेष्मि ये च माम्॥१॥
वीर्यवान् (पराक्रमी) से वीर्यवान् की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार खदिर (खैर वृक्ष या आकाश से आपूर्ति करने वाले चक्र) के अन्दर स्थापित अश्वत्थ (पीपल अथवा विश्ववृक्ष) उत्पन्न हुआ है। वह अश्वत्थ (तेजस्वी) उन शत्रुओं (विकारों) को नष्ट करे, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा हम जिनसे द्वेष करते हैं॥१॥
[आयुर्वेद में खदिर और पीपल दोनों वक्ष रोग निवारक है। खदिर में उत्पन्न पीपल के विशेष गुणों के उपयोग की बात कहा जाना उचित है। जीवन वृक्ष-जीवन तत्व की आपूर्ति का आधार आकाश में उपलब्ध इष्ट सूक्ष्म प्रवाह है। यह अविनाशी जीवनतत्व हमारे विकारों को नष्ट करने वाला है। यह कामना ऋषि द्वारा की गई है।]
३९५. तानश्वत्थ नि: शृणीहि शत्रून् वैबाधदोधतः।
इन्द्रेण वृत्रघ्ना मेदी मित्रेण वरुणेन च॥२॥
हे अश्वत्थ! (अश्व के समान स्थित दिव्य जीवन तत्त्व) आप विविध बाधाएँ उत्पन्न करने वाले उन द्रोहियों को नष्ट करें। (इस प्रयोजन के लिए आप) वृत्रहन्ता इन्द्र, मित्र तथा वरुणदेवों के स्नेही बनकर रहे॥२॥
३९६. यथाश्वत्थ निरभनोऽन्तर्महत्यर्णवे।
एवा तान्त्सर्वान्निर्भङ्ग्धि यानहं द्वेष्मि ये च माम्॥३॥
हे अश्वत्थ! जिस प्रकार आप अर्णव (अन्तरिक्ष) को भेदकर उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार आप हमारे उन रिपुओं को पूर्णरूप से विनष्ट करें, जिनसे हम विद्वेष करते हैं तथा जो हमसे विद्वेष करते हैं॥३॥
३९७. यः सहमानश्चरसि सासहान इव ऋषभः।
तेनाश्वत्थ त्वया वयं सपत्नान्त्सहिषीमहि॥४॥
हे अश्वत्थ ! जिस प्रकार आप शत्रु को रौंदने वाले वृष के सदश बढ़ते हैं, उसी प्रकार आपके सहयोग से हम मनुष्य अपने रिपुओं को विनष्ट करने में समर्थ हो॥४॥
३९८. सिनात्वेनान् निर्ऋतिर्मृत्योः पाशैरमोक्यैः।
अश्वत्थ शत्रून् मामकान् यानहं द्वेष्मि ये च माम्॥५॥
हे अश्वत्थ ! निर्ऋति (विपत्ति) देव हमारे उन रिपुओं को न टूटने वाले मृत्यु पाश से बाँधे, जिनसे हम विद्वेष करते हैं तथा जो हमसे विद्वेष करते हैं ॥५॥
३९९. यथाश्वत्थ वानस्पत्यानारोहन् कृणुषेऽधरान्।
एवा मे शत्रोर्मूर्धानं विष्वग् भिन्द्धि सहस्व च॥६॥
हे अश्वत्थ! जिस प्रकार आप ऊपर स्थित होकर वनस्पतियों को नीचे स्थापित करते हैं, उसी प्रकार आप हमारे रिपुओं के सिर को सब तरफ से विदीर्ण करके, उन्हें विनष्ट कर डालें॥६॥
४००. तेऽधराञ्चः प्र प्लवन्तां छिन्ना नौरिव बन्धनात्।
न वैबाधप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम्॥७॥
जिस प्रकार नौका-बन्धन छूट जाने पर नदी की धारा में नीचे की ओर प्रवाहित होती है, उसी प्रकार हमारे रिपु नदी की धारा में ही बह जाएँ। विविध बाधाएँ उत्पन्न करने वालों के लिए पुन: लौटना सम्भव न हो ॥७॥
४०१. प्रैणान् नुदे मनसा प्र चित्तेनोत ब्रह्मणा।
प्रैणान् वृक्षस्य शाखयाश्वत्थस्य नुदामहे॥८॥
हम इन शत्रुओं (विकारों) को ब्रह्मज्ञान के द्वारा मन और चित्त से दूर हटाते हैं। उन्हें हम अश्वत्थ (जीवन-वृक्ष) की शाखाओं (प्राणधाराओं) द्वारा दूर करते हैं ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी